कविता के मंदिर तक आकर बाहर ही रुक जाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
जीवन की नश्वरता को मैं
शाश्वत स्वर कैसे कहता
दो दिन जहां ठहरना उसको
अपना घर कैसे कहता
भावों के निर्बंध गगन को
शब्द सीप में क्या भरता
मन के दिव्य प्रेम का गायन
करता तो कैसे करता
वह अगेय रह जाता पीछे मैं कितना भी गाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
चंदन माला पर क्या लिखना
देवालय जब सूना हो
भीतर हृदय अछूता, ऊपर-
उपर तन को छूना हो
मृण्मय काया से चिण्मय का
संभव है कैसे अर्चन
जो अरूप का रूप दिखा दे
ऐसा भी क्या है दरपन
अगणित प्रश्न उठा करते हैं मैं कितने भी गिराता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
सागर मंथन से आता है
अमरित संग गरल भी तो
एक साथ ही जीवन है यों
मुश्किल और सरल भी तो
वरें एक को तजें एक को
खंडित जीवन दृष्टि सदा
नहीं जगत में कभी किसी पर
होती सुख की वृष्टि सदा
साथ अंधेरा भी रहता है कितने दीप जलाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
शाश्वत स्वर कैसे कहता
दो दिन जहां ठहरना उसको
अपना घर कैसे कहता
भावों के निर्बंध गगन को
शब्द सीप में क्या भरता
मन के दिव्य प्रेम का गायन
करता तो कैसे करता
वह अगेय रह जाता पीछे मैं कितना भी गाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
चंदन माला पर क्या लिखना
देवालय जब सूना हो
भीतर हृदय अछूता, ऊपर-
उपर तन को छूना हो
मृण्मय काया से चिण्मय का
संभव है कैसे अर्चन
जो अरूप का रूप दिखा दे
ऐसा भी क्या है दरपन
अगणित प्रश्न उठा करते हैं मैं कितने भी गिराता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
सागर मंथन से आता है
अमरित संग गरल भी तो
एक साथ ही जीवन है यों
मुश्किल और सरल भी तो
वरें एक को तजें एक को
खंडित जीवन दृष्टि सदा
नहीं जगत में कभी किसी पर
होती सुख की वृष्टि सदा
साथ अंधेरा भी रहता है कितने दीप जलाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
9 comments:
मैंने ये कविता सहेज कर रख ली है या यूँ कहें कि मेरी पसंदीदा कविताओं की लिस्ट में ये भी जुड़ गई है। आपके भावों और लयकारी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम होगी।
बहुत ही खूबसूरत गीत है रवि....इन पंक्तियों ने तो खास तौर पर छुआ मन को
" चंदन माला पर क्या लिखना
देवालय जब सूना हो
भीतर हृदय अछूता, ऊपर-
उपर तन को छूना हो"
लाजवाब!
कविता के मंदिर तक आकर बाहर ही रुक जाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं
कल रात भर किसी ऐसे ही विचार ने सोने नही दिया है......
रवि भाई,
आप जब कभी भी कोई कविता कहते हैं तो वो अपने चरम पे होती है. भावों का सुन्दर संयोजन, शब्दों को एक दुसरे में गुथ जाना........सब मिलकर एक बेहतरीन कविता सामने ले आते हैं.
जीवन की नश्वरता को मैं
शाश्वत स्वर कैसे कहता
दो दिन जहां ठहरना उसको
अपना घर कैसे कहता
दार्शनिकता को सहज अंदाज़ में बहुत खूब कहा है.
चंदन माला पर क्या लिखना
देवालय जब सूना हो
भीतर हृदय अछूता, ऊपर-
उपर तन को छूना हो
अद्भुत...............बहुत सुन्दर
रवि भाई, जल्दी-जल्दी अपनी खूबसूरत कविताओं से मिलवाया करो.
behad sundar rachna hai ravikaant ji,bdhai......aise hi likhte rahe
महोदय कुछ नया पढवाने की महती कृपा करें ...
इत्ते दिन हुये कुछ लिखा नहीं।
बेहद सुन्दर कविता।।
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