Monday, December 28, 2009
मुझको याद तुम्हारी आती
करीब महीने भर बाद वापस आया हूं और संयोग ऐसा है कि एक ओर इस साल को विदाई देनी है तो दूसरी ओर नये का स्वागत भी करना है। इस अवसर पर एक गीत पढ़ें और अपनी राय से अवगत करायें-
ये तो हुई पुराने की विदाई और नये के स्वागत की बात पर अगर पूरे वर्ष को देखूं तो मेरे लिये हर्ष और विषाद दोनों से भरा रहा। और कई बार तो ऐसा हुआ कि दोनों इकट्ठे एक ही क्षण में आये और सही मायने में कहूं तो मुझे किंकर्त्तव्यविमूढ़ करने में कोई कसर न छोड़ा। हां, इस सफ़र में गुरूजनों और प्रियजनों का साथ जरूर संबल देता रहा, हर मोड़ पर। अगर हिंदी की बात करूं तो यथाशक्ति जो मुझसे हो सकता था, प्रयत्न किया, जैसे-
ऐसी कुछ और चीजें भी शामिल रहीं, उनके बारे में फ़िर कभी बात करूंगा। फ़िलहाल मुझे आज्ञा दीजिये, नये साल में गज़ल के साथ फ़िर मिलता हूं।
नोट: सरसों वाली फोटो http:/यहां से और पीपल वाली यहां से ली गई है तथा संबंधित लोगों को सूचित भी कर दिया है। आपत्ति की स्थिति में हटा ली जायेगी।
Monday, November 30, 2009
वो नन्ही कली एक आई है जबसे......
वो नन्ही कली एक आई है जबसे
महकने लगा है चमन धीरे-धीरे
भंवर गुनगुनाते, हवा नाचती है
हुये सब खुशी में मगन धीरे-धीरे
हर इक बात उसकी तो जादू भरी है
उतर आई धरती पे कोई परी है
जमीं उसकी आहट पे खुशियां बिछाती
कदम चूमता है गगन धीरे-धीरे
वो खुद है रुबाई, वो खुद ही गज़ल है
सरोवर में खिलता हुआ इक कंवल है
उसे चांदनी रोज लोरी सुनाती
है झूला झुलाती पवन धीरे धीरे
सिखायेगी सबको नये गीत गाना
चलेगा उसीके ये पीछे जमाना
वो इक दिन सितारों से ऊपर उठेगी
ये मन में लगी है लगन धीरे-धीरे
Friday, November 20, 2009
रोते को हंसा दो तो कोई बात है साहिब, हंसते को रुला देना बड़ी बात नहीं है
कदमों में तिरे जीत की सौगात नहीं है
रोते को हंसा दो तो कोई बात है साहिब
हंसते को रुला देना बड़ी बात नहीं है
ऐ काश! हकीकत में भी होती वो जमीं पर
कागज़ पे सड़क होना करामात नहीं है
हिन्दू न मुसलमान नहीं सिक्ख इसाई
आदम के सिवा और मिरी जात नहीं है
उतरेगा किसी रोज तो दौलत का नशा भी
होगी न सहर ऐसी कोई रात नहीं है
आराम से भर पेट जिसे चल दिए खाकर
जीवन कोई थाली में रखा भात नहीं है
दो-चार फ़ुहारों से नहीं बात बनेगी
ना प्यास बुझाए जो वो बरसात नहीं है
कशमीर से गुजरात तलक हाल वही है
किस शहर में आतंक का उत्पात नहीं है
Tuesday, November 17, 2009
गीत न लिखता तो क्या करता
एक तुम्हारा, मधुर हास है, दूजे ये मधुमास पुनीते!
तीजे ठहरी, रात चांदनी, गीत न लिखता, तो क्या करता
झरें अधर से, बोल प्रेम के
जब मदमाती, पुरवाई में
ऐसा लगता, कूक रही हो
जैसे कोयल, अमराई में
सजा गया है, चांद रूप को
और सुना है स्वयं रात ने,
पहनाया झिलमिल तारों का
कंगन फिर आज कलाई में
मुझको फ़िर कर गया पराजित, प्रिये! तुम्हारा हृदय-समर्पण
सुर-दुर्लभ इस प्रणय-हार को, जीत न लिखता तो क्या करता
शुभे! हंसिनी, बन तुम आई
विश्व सकल ये, मानसरोवर
बना सीप से, मोती पहले
चुन लो मुझको, फ़िर तुम आकर
विदित मुझे ये, कठिन बहुत है
कुछ भी कहना, लेकिन फ़िर भी,
सोच रहा मैं, अवश-अकिंचन
उपमाएं क्या वारूं तुम पर
खोज थका मैं, मिला न मुझको, अपर शब्द कोई भी सुंदर
तुम्हे सुहावन, प्रिय मनभावन, मीत न लिखता, तो क्या करता
Monday, November 9, 2009
जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये....
जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये
हमने तमाम उम्र फ़रिश्ता कहा जिन्हे
ख्वाबों के पंछियों की वो पांखें कुतर गये
कुर्सी के दांव-पेंच का आलम ये देखिये
जिस ओर की हवा थी, महाशय उधर गये
सच उनके घर गुनाह में शामिल है इसलिये
जब भी गये हैं लेके हथेली पे सर गये
मेरी तो कोई बात भी उनसे छुपी नहीं
हैरत से देखते हैं जो देने खबर गये
दुनिया की हर बुराई थी जिनमें भरी हुई
सत्ता के शुद्ध-जल से वो पापी भी तर गये
मेरे अजीज मुझसे सरेराह जो मिले
मुंह फ़ेरकर जनाब मजे से गुज़र गये
Tuesday, November 3, 2009
बोलो जय सियाराम....
भारतमाता भई लाचार, बोलो जय सियाराम
विद्यालय से कालेजों तक, करता कौन पढ़ाई
डिग्री की चिंता क्या करनी, ये कलियुग है भाई
सब है बिकता खुले बाजार, बोलो जय सियाराम
ले लो रूपये के दो-चार, बोलो जय सियाराम
मन की कोई पूछ नहीं है, तन का ऊंचा आसन
जितने कम जो कपड़े पहने, उतना सुंदर फ़ैशन
रूप की महिमा अपरंपार, बोलो जय सियाराम
इशारों पर नाचे संसार, बोलो जय सियाराम
बस कागज़ पर दिखता है जो, वो विकास है कैसा
बिजली, सड़क और पानी का, था जितना भी पैसा
मंत्री, अफ़सर गये डकार, बोलो जय सियाराम
कि कितनी अच्छी है सरकार, बोलो जय सियाराम
जीत गये तो भूल गये वो, सभी चुनावी वादे
बदल गये गिरगिट-सा देखो, जो थे सीधे-सादे
हुआ जनता का बंटाधार, बोलो जय सियाराम
बड़े लोगों का बेड़ा पार, बोलो जय सियाराम
कहां और किस ओर गया है, आज ये भारतवर्ष
चार्वाक का दर्शन बन गया, एकमात्र आदर्श
घी पीते हैं लेकर उधार, बोलो जय सियाराम
वो यू पी हो या हो बिहार, बोलो जय सियाराम
Friday, October 30, 2009
आंसुओं में डूबकर उस पार जाना चाहता हूं.....
नर नाग सुर गंधर्व-कन्या रूप मुनि मन मोहहिं
तो इस तरह से शुरू हुआ चार दिनों तक चलनेवाला हमारा वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम। पूरे कार्यक्रम के विस्तृत विवरण में तो मेरी खास दिलचस्पी नहीं है। हां, कुछ बातें जरूर साझा करने लायक हैं। सबसे पहले तो ये कि एक अपराध मुझसे होते-होते बचा या कहें कि परमात्मा ने बचा लिया। किसी विशेष कार्यक्रम में एक खास आत्मीय जन को बुलाने की प्रबल इच्छा थी पर किसी कारण से संभव न हो पाया। मन में एक पीड़ा का भाव था लेकिन कार्य्क्रम समापन के बाद मैंने ईश्वर का धन्यवाद दिया कि तू जो करता है ठीक ही करता है। मन में कई प्रश्न भी उठे -क्या कविता के लिये विषय का इतना अभाव हो गया है कि कवियों को अपनी समस्त प्रतिभा ये बताने में नष्ट करनी पड़े कि किसी अभिनेत्री ने विदेशी को चुंबन देकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है। और बताने का ढंग भी ऐसा कि साफ समझ आता है कि उन्हे भारतीय संस्कृति से तो क्या लेना देना ? असल पीड़ा तो ये है कि इस उपहार से वे क्यों वंचित रह गय? उनका दर्द कि हम भारतीय क्या मर गये थे? अब चूंकि ये दर्द तो कई भारतीयों का है इसलिये तालियां तो खूब मिली बस कहीं कविता भर न मिली। ये तो सिर्फ़ एक उदाहरण है, पूरा कार्यक्रम सुनकर तो ऐसा लग रहा था जैसे कवि-सम्मेलन न होकर कोई घटिया कामेडी सिनेमा चल रहा हो। खैर मैं निंदा-रस का रसिक नहीं हूं इसलिये इस अध्याय को यहीं बंद करते हैं और मिलते हैं दो प्रतिभाओं से जिनमें काव्य का बीज अंकुर फोड़ रहा है। एक तो अमित जी हैं जिनके बारे में पहले भी बताया है आपको और दूसरे हैं भारत भूषण। अभी-अभी अमित ने किसी कारवाले को फूल बेचने की कोशिश करते बच्चे को लक्ष्य कर लिखा है-
आप ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं
कल बड़ा हो जाऊंगा तो शक करेंगे आप भी
आज बच्चा ही समझकर रात की रोटी खिलाएं
बेचता सड़कों पर बचपन कुछ व्यथित संवेदनाएं
जहां तक भारत-भूषण की बात है, ये बंधु इतना सुंदर गाते हैं कि आप प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकते। पिछले दिनों इन्होने अपना ताजा गीत सुनाया-
मैं भी पाना चाहता हूं
आंसुओं में डूबकर
उस पार जाना चाहता हूं
इनसे मिलकर बस एक ही काम किया जा सकता था जो मैंने कर दिया। शीघ्र ही दोनों गुरूकुल में दाखिले की अर्जी देने वाले हैं। इनके बारे में बाकी बातें बाद में।
Saturday, October 17, 2009
मुझसे कहते वही कहानी, शुभदे ! चंचल नयन तुम्हारे
मुझसे कहते वही कहानी, शुभदे ! चंचल नयन तुम्हारे
रोम-रोम आभारी मेरा तुमने इतना प्यार किया है
दुविधाओं के महाजाल में नीर-क्षीर व्यवहार किया है
तुमको परिभाषित क्या करता ! सभी विशेषण छोटे निकले
पकड़ तर्जनी तेरी मैंने हर दुर्गम पथ पार किया है
मुखर हुई हो जैसे प्रमुदित देवालय की कोई प्रतिमा
वेद-मंत्र से पावन लगते, प्रियंवदे ! ये वचन तुम्हारे
निशिदिन मन की टेर यही है जैसे भी हो प्रिय तुम आओ
तृषित अधर अतिविकल आज हैं आकर सुधा धार बरसाओ
सौंप दिया सब कुछ तुम पर मुझपर मेरा अधिकार कहां है
मैं तो एक बांसुरी जैसा जो चाहो सो गीत बजाओ
खोल हृदय की बंद किवाड़ें, नेह-द्रव्य से भर दो झोली
याचक बनकर आया हूं मैं, प्राणवल्लभे ! भवन तुम्हारे
Saturday, October 10, 2009
जन्मदिन मुबारक हो
इतिहास चुपके से इस क्षण को चिन्हित कर लेता है। बालक धीरे-धीरे बड़ा होता है। किशोरावस्था आ गई है।किशोर की अभिरूचियां देखकर लगता है जैसे इस तरूण से सरस्वती को कुछ अभीष्ट है। गीत, गज़लों से ऐसालगाव हो गया है मानो गज़ल ही खाना, ओढ़ना, बिछाना जीवन का लक्ष्य हो-
ग्यारवीं कक्षा में पंहुच चुके इस होनहार युवक को शायरी का कीड़ा काटता है। दिल के मचलते अरमान कागज़ परउतरने लगते हैं। एक असहाय पेड़ का दर्द -
एक पेड़ बेचारा पेड़, बारिश में भीगता पेड़, गर्मी में सूखता पेड़
इस नौजवान के हृदय में तीर की तरह चुभता है और वहीं से काव्य-यात्रा शुरू होती है। इतिहास फ़िर से इस क्षण कोचिन्हित कर लेता है। मुहब्बत के शेरों ने डायरी के पन्ने भरने शुरू कर दिये हैं। दुश्मन ज़माने की नज़र पड़ती हैऔर सुनने में आता है कि लड़का राह भटक गया है। संदेह है कि किसी मेनका ने इस विश्वामित्र की तपस्या भंग करदी है। अरे यह क्या!! इश्क सर पर हाथ रखे रो रहा है, गज़ल एक कोने में उदास बैठी है। कुटिल आक्षेपों से विकलहोकर खुद ही डायरी को आग लगा दी है और दिनकर जी की पंक्तियां गुनगुना रहा है-जब से बलि होना सीखा
फूलों ने बाहर हंसी और
भीतर-भीतर रोना सीखा
लेकिन कब तक? कहते हैं कला दबाने से और निखरती है।
किन्तु क्या हार सका अनुराग ?
मानकर किस बंधन का दर्प
छोड़ सकती ज्वाला को आग?
शीघ्र ही देह की देहरी नाम से दूसरी कामायनी अस्तित्व में आती है। पूरी पचास गज़लों के साथपुरूष के अंतरंग संबंधों को आधार बना कर लिखी हैं। ये कच्चे और भावुक कवि मन की अभिव्यक्तियां हैं शायद बीस या इक्कीस साल के युवा मन की -
जिस्म को यूं ही गुनगुनाने दो
मुझको खुद में ही पिघल जाने दो
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जलते हुए गुलमोहर की ठंडी सी छांहें देखीं थीं
साथ किसी के हमने भी तो चांद सी बांहे देखीं थी
सौ छंदों में स्त्री पुरुष की प्रणयक्रिया को प्रतीकों के माध्यम सेउकेरने का प्रयास उसी बीसइक्कीस की उम्र में । विषय एककिशोर के प्रथम प्रणय के अनुभव
महाप्रणय के महाग्रंथ का लेखाकरण प्रगति पर था तब
मसी नहीं थी, क़लम नहीं थी किन्तु कार्य उन्नति पर था तब
तरल हो गईं दो कायाएं मिलकर बनने एक रसायन
कल्पित प्रारूपों पर मानो इच्छित सा निर्माण हुआ था
बोधि वृक्ष की छाया ने फिर योगी को निर्वाण दिया था
सब कुछ विस्मृत था, स्मृत था केवल प्रणय कर्म निर्वाहन
जगा रहा शमशान निशा में, शव साधक कोई अघोर था
भांति भांति के स्वर होते थे, महानिशा का नहीं छोर था
तंत्र, मंत्र और यंत्र सम्मिलित सभी क्रियाएं बड़ी विलक्षण
क्षरण हो रहा था जीवन का बिंदु बिंदु तब उस अनंत में
काल गति स्तब्ध खड़ी थी सिर्फ मौन था दिग्दिगंत में
Thursday, October 1, 2009
रोजी-रोटी के चक्कर ने....
बाज लगे चिड़ियों से डरने
फूंका मंतर जादूगर ने
सच से कितना प्यार है उसको
समझाया उसके पत्थर ने
ढूंढ रहे हल ताबीजों में
अक्ल गई क्या चारा चरने
बाबूजी की उम्र घटा दी
रोजी-रोटी के चक्कर ने
पाप बढ़ा जब हद से ज्यादा
तब फूंकी लंका वानर ने
धरती ने जब ज़िद ठानी है
मानी हैं बातें अंबर ने
ज़हर भरा है यमुना-जल में
डेरा डाला फ़िर विषधर ने
बांट दिया है इन्सानों को
मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर ने
कौन उठाये अब गोवर्धन
धमकाया फ़िर है इंदर ने
रिश्वत से इंकार किया तो
बरसों लटकाया दफ्तर ने
धर्म बिका जब बाज़ारों में
पीट लिया माथा ईश्वर ने
Monday, September 14, 2009
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में
उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में
एक तरफ मैं बातें करता बरछी, तीर, कटारों की
काली का करवाल, साथ में बहते शोणित-धारों की
क्षार-क्षार करने को आतुर दहक रहे अंगारों की
टूट-टूट कर पल-पल गिरते सत्ता के दीवारों की
दूजे पल मैं राह दिखाता भटक रहे नादानों को
सत्य, अहिंसा और प्रेम की मंजिल मेरे गीतों में
कभी प्रीत की डोर बांधती, तो कभी भौंरा आजाद
कभी काल की कुटिल हास है कभी देवता का प्रसाद
बैठ कुटी में कभी लिखा है साग औ’ रोटी का स्वाद
कभी कलम का साथ निभाती है विविध व्यंजन की याद
है एक ओर विज्ञान-जनित नगरों का वैभव विशाल
वहीं खेत औ’ खलिहानों की मुश्किल मेरे गीतों में
शंखनाद कर स्वप्न तोड़ता बरबस तुम्हे जगाता हूं
नयनों में आंसू भर-भर कर रोता और रुलाता हूं
रास-रंग सब छोड़ प्यास के दारुण गीत सुनाता हूं
पर प्यासे अधरों की खातिर ये भी खेल रचाता हूं
जाम, सुराही, साकीबाला, पीनेवालों की टोली
सजी हुई है पूरी-पूरी महफिल मेरे गीतों में
Wednesday, September 2, 2009
चली हवाएं परिवर्त्तन की....
चली हवाएं परिवर्त्तन की
सहमी छाती नील-गगन की
बेला फिर शिव के नर्त्तन की
यह इंद्रजाल अब टूटेगा
बंधन से मानव छूटेगा
हां, फूल नया खिलने को है
धरती, नभ से मिलने को है
तू गीत क्रांति के गाने दे
जग का सुख-चैन मिटाने दे
फसलों की बात भुलाने दे
खेतों को आग उगाने दे
आंसू का मोल चुकाना है
पिछ्ड़ों को आगे लाना है
देखो यह समय बदलता है
अब सूरज नया निकलता है
सत्ता का जोर न रोकेगा
तोपों का शोर न रोकेगा
बादल घनघोर न रोकेगा
झंझा झकझोर न रोकेगा
यह रथ बढ़ता ही जायेगा
सीढ़ी चढ़ता ही जायेगा
मैं पूजन थाल सजाऊंगा
माथे पर तिलक लगाऊंगा
फिर नित-नूतन मंगल होगा
निश्चित ही सुंदर कल होगा
Wednesday, August 26, 2009
दो छंद पढ़िये आज की हालात पर....
कितना भी काटो पर, फ़िर-फ़िर आते हैं
अपना ठिकाना नहीं, लेकिन दूसरों का वो
भावी और भूत सब, पल में बताते हैं
फ़िरते लगाये घात, गली-गली चौक-चौक
भेड़ की पहन खाल, भेड़िये लुभाते हैं
संक्रमण-काल में हैं, हिंदी कवितायें आज
चुटकुले पढ़ कवि, ताली बजवाते हैं
(२)
कोई आके भर देगा, हीरे-मोती झोलियों में
कबसे भरम में है, जनता खड़ी हुई
कैसा है विकास यह, रोग का इलाज जब
कहीं पे भभूत कहीं, जादू की छड़ी हुई
और हाल ऐसा मेरे, देश के नेताओं का है
गिद्ध की निगाह जैसे, लाश पे गड़ी हुई
होते गर एक-दो तो, बात कोई करता मैं
लगता है कुंए में ही, भांग है पड़ी हुई
Friday, August 21, 2009
प्रेम तो हर पल नया है......
पर ये कहता सत्य सृष्टि का, प्रेम तो हर पल नया है
हर ठौर उसी का वास अगर, एक ठौर फिर बंधना क्या
दोनों भरते हैं जीवन को धूप-छांह से बचना क्या
आग, हवा, पानी पर भाई, जब कोई प्रतिबंध नहीं
लक्ष्मण-रेखा खींच-खींचकर मेरा-मेरा जपना क्या
अलग-अलग हैं रूप-रंग पर गुण तो एक समाहित है
प्यास धरा की मिटे, इष्ट हो, मत कहें बादल नया है
ठहराव निशानी जड़ता की, गति जीवन की परिभाषा
नील गगन के पंछी को पिंजरे से कैसी आशा
किसी कली का किसी भ्रमर से आजीवन संबंध रहे
है ये केवल पागल मन की, रूग्ण, सशंकित अभिलाषा
कल-कल, कल-कल बहते रहना सहज नियम है धारा का
आप न बदलें रोज नाम पर रोज गंगाजल नया है
Saturday, August 15, 2009
बहुत हुई पूजा देवों की, कर दो मूर्त्ति विसर्जन आज...
उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में
तुम्हे रूला जो हंसते, उनको, करना होगा क्रंदन आज
बहुत हुई पूजा देवों की, कर दो मूर्त्ति विसर्जन आज
भीख नहीं स्वीकार हमें है चाहे दाता हो भगवान
नहीं चलेगा झोपड़ियों का महलों के हाथों अपमान
सुनो स्वर्ग के ठेकेदारों भय का जुटा रहे सामान
होनी की परवाह करे कब जिसने रखी हथेली जान
कड़क रही ये बिजली देखो है भीषण घन गर्जन आज
दम लेगा सर्वस्व बहाकर क्रोधातुर है सावन आज
छला गया जो युगों युगों तक निशिदिन करके कपट प्रहार
आज डटा है समरभूमि में दुर्जय लिये हाथ तलवार
रणचंडी को भेंट चढ़ाता काट काट मुंडों के हार
खंडित मायाजाल तुम्हारा ओ निर्दय हो जा तैयार
मना रहे जो जश्न सुनें वे इंद्रजीत के प्रियजन आज
बूटी दी है स्वयं काल ने जाग उठा फिर लछिमन आज
Tuesday, August 11, 2009
तीन डग में वामन वो, जग को नाप जाता है...
दिल का हाय जख्मों से कौन सा ये नाता है
इश्क की गली सूनी पर अजब है दीवाना
लेके फूल हाथों में अब भी रोज आता है
रोशनी सी होती है रोज मन के आंगन में
कौन है जो चुपके से दीप ये जलाता है
अब तो उससे मिलने को धड़कनें मचलती हैं
दूर कोई गीतों में नाम ले बुलाता है
होश कुछ है राजाओं, दीन जिसको समझे हो
तीन डग में वामन वो, जग को नाप जाता है
द्वारका ना मथुरा में और ना अयोध्या में
वो तो बस मिरे मन में अब धुनी रमाता है
सांस सबकी रुक जाएं, और हवाएं थम जाएं
धीरे धीरे दिलबर यूं घूंघटा उठाता है
देखकर रजा उसकी रो पड़ा सितमगर भी
चोट जो लगे तो रवि और मुस्कुराता है
Wednesday, August 5, 2009
बंधन, जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं
Thursday, July 23, 2009
ख्वाब हैं मेरे कि जी उठते हैं ईसा की तरह
पीछे-पीछे सुख चले आये हैं छाया की तरह
रोज सूली पर इन्हे दुनिया चढ़ाती है मगर
ख्वाब हैं मेरे कि जी उठते हैं ईसा की तरह
सामने होता है जब वो खुद को देता हूं मिटा
मैं समंदर से सदा मिलता हूं दरिया की तरह
वो तुम्हें जीवन के असली मायने सिखलायेंगें
तुम बुजुर्गों को समझना पाठशाला की तरह
आ भी जाओ राम बनकर राह पर आंखें लगी
जिंदगी पत्थर हुई शापित अहिल्या की तरह
Sunday, July 19, 2009
यह सावन शोक नसावन है....
ग्रीष्म-अनल चुपचाप सहे, मुख से न कहे कुछ भी धरती
जैसे कोई तपस्विनी, अतिविकट तपस्या हो करती
आज प्रतीक्षित पुण्य फला, उमड़-घुमड़ आया सावन है
मोती-सी बूंदें बरसीं, पुलकित वसुधा का यौवन है
जीर्ण वसन त्याग योगिनी, चुनरी धानी लहराती है
पास पिया को पा गोरी, सज-धज कर ज्यों इठलाती है
काले घन के बीच कभी, दामिनि ऐसे दिख जाती है
मध्य सुहागन कुंतल के, जैसे सिंदूर सजाती है
आठों याम दादुरों की, कुछ ऐसी ध्वनियां आती हैं
किसी लग्न वेदी पर ज्यों, सुंदरियां गीत सुनाती हैं
देखो पावस के आते, जीवन गतिमान हुआ कैसे
तज समाधि की निश्चलता, योगी फिर से विचरे जैसे
ग्रीष्म तपाया करता है, पावस के आने से पहले
आवश्यक दुख से परिचय, सुख जग में पाने से पहले
जीवन एक लता जिस पर, पावस निदाघ दो फूल लगे
मैं अपनाता दोनों को, मेरे हित जो अनुकूल लगे
दूरी पल भर की प्रिय से, मन में ज्वाला सुलगाती है
जाने कब चुपके-चुपके, दबे पांव घर आ जाती है
बढ़ती विरह वेदना जब, यादों के मेघ बुलाता हूं
उर का ताप मिटाने को, नयनों से जल बरसाता हूं
Thursday, July 16, 2009
वो मिरे दिल में गज़ल लिखता है बस मुस्कान से
दोस्त वो ही मुश्किलों में बन गये अन्जान से
कौन कहता है कि डरकर खींच लूंगा पांव मैं
ले के कश्ती चल पड़ा हूं कह दो ये तूफान से
लीक पर चलना मिरी फ़ितरत में है शामिल नहीं
जंग जारी है मिरी अल्लाह से, भगवान से
कौन करता याद बिस्मिल और भगत को आजकल
हो गये मेले शहीदों के सभी वीरान से
उसको काग़ज़ और क़लम की क्या ज़रूरत है भला
वो मिरे दिल में गज़ल लिखता है बस मुस्कान से
दर्द से बेहाल जनता द्वार पर कब से खड़ी
किन्तु फुरसत है कहां राजा को नाच और गान से
Sunday, July 12, 2009
एक जागरण कविता
न सूरमा बचे यहां, नहीं बची निशानियां
चली अजीब है हवा, कहीं न फूल डाल पे
न आज वीर सामने, लहू सजे न भाल पे
जले सदा प्रदीप्त हो, दिगंत को प्रकाश दे
पले बढ़े सरोज-सा, खिले सदा सुवास दे
उबाल सिंधु में उठे, प्रचंड मत्त रोर से
बंधा फिरे निढाल-सा, मृगेंद्र हस्त-डोर से
दिशा-दिशा प्रसन्न हो, जयेति दिव्य-गान से
कठोर शूल भी जिन्हे, लगें लता समान से
वरें सहर्ष मृत्यु को, न ग्लानि का विधान हो
न लीक पे चलें कभी, बढ़ें स्वयं प्रमान हो
बता मुझे कहां गये, अमर्त्य पुत्र देश के
लगी विषाद कालिमा, ललाट पे दिनेश के
सुनो, सुनो, सुनो, सुनो, अबाध क्रांति गीत को
उठो, उठो, उठो, उठो, पढ़ो नवीन रीत को
चलो, चलो, चलो, चलो, करे पुकार भारती
बढो, बढ़ो, बढ़ो, बढ़ो सजी प्रभात आरती
Tuesday, July 7, 2009
लीक पर चलना मिरी फ़ितरत में है शामिल नहीं... जंग जारी है मिरी अल्लाह से, भगवान से
ले के कश्ती चल पड़ा हूं कह दो ये तूफान से
लीक पर चलना मिरी फ़ितरत में है शामिल नहीं
जंग जारी है मिरी अल्लाह से, भगवान से
और मिला फ़िर, ये प्रसाद, तुमने देखा, है मुझे नजर भर
ले-देकर इन आंखों में
बस एक ख्वाब, हरदम पलता था
जैसे भी हो, मिलना हो
ये दीप सदा, निशचल जलता था
इससे सुंदर, जीवन की, छवि भला और, अब क्या हो सकती
मुझे अंक में, लिया और, निज वरद-हस्त, रख दिया भाल पर
सकल सिद्धियां व्यर्थ हुईं
वाणी तेरी, प्रीत-पगी, सुनकर होता, मन शीतल मानो
मधुर चांदनी, पूनम की, हो बरस रही, मुझ पर झर-झर कर