मानव मन की अजीब सी उलझनें हैं। जो पास ही है उसे खोजने कहीं और चल देता है। और इस तरह पल-पल उपलब्ध निधि से भी वंचित हो जाता है। इसी भाव को अभिव्यक्त करता हुआ एक गजल सुनें (साभार: यू ट्यूब)
बोल इस प्रकार हैं-
सर छुपाके मेरे दामन में खिजाओं ने कहा
हमें सताने दे गुलशन में बहार आई है....
जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला
सह्नेगुल छोड़ गया दिल मेरा पागल निकला...
जब उसे ढूँढने निकले तो निशां तक न मिला
दिल में मौजूद रहा आँख से ओझल निकला..
जब बहार....
इक मुलाकात थी जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे वो इक पल निकला...
जब बहार....
वो जो अफसाना-ए-गम सुनके हँसा करते थे
इतना रोये हैं कि सब आँख का काजल निकला...
जब बहार......
हम उसको ढूँढने निकले थे परीशान रहे
शहर तो शहर है जंगल भी न जंगल निकला...
जब बहार.....
Friday, November 21, 2008
Tuesday, November 4, 2008
तुझको अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है
तुझको अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है
कोकिला के कंठ से नित सुर तुम्हारा बोलता है
मन के कोने में छिपे सब भेद गहरे खोलता है
उसके पैरों में नर्त्तन जिसने आहट सुनी तुम्हारी
जिसने पी मदिरा नयन की मस्त अबतक डोलता है
तुमसे मिलकर खुश हूँ इतना बाकी अब अरमान कहाँ है
तुझको अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है
बिन तुम्हारे साथ के अब है अधूरी हर कहानी
सुख सभी ऐसे हैं जैसे रेत में दिखता है पानी
अल्पकालिक भी मिलन प्राणों मे नवरस घोलता
मर्त्य है संसार तो क्या प्रेम है शाश्वत निशानी
विरह-ज्वारग्रस्त मनुज, औषधि प्रेम समान कहाँ है
तुझको अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है
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