Tuesday, June 21, 2011

सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं

बहुत दिन हो गये यहां कुछ लिखे हुये इसलिये बिना किसी भूमिका के एक कविता-

कविता के मंदिर तक आकर बाहर ही रुक जाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं



जीवन की नश्वरता को मैं
शाश्वत स्वर कैसे कहता
दो दिन जहां ठहरना उसको
अपना घर कैसे कहता

भावों के निर्बंध गगन को
शब्द सीप में क्या भरता
मन के दिव्य प्रेम का गायन
करता तो कैसे करता


वह अगेय रह जाता पीछे मैं कितना भी गाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं



चंदन माला पर क्या लिखना
देवालय जब सूना हो
भीतर हृदय अछूता, ऊपर-
उपर तन को छूना हो

मृण्मय काया से चिण्मय का
संभव है कैसे अर्चन
जो अरूप का रूप दिखा दे
ऐसा भी क्या है दरपन


अगणित प्रश्न उठा करते हैं मैं कितने भी गिराता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं



सागर मंथन से आता है
अमरित संग गरल भी तो
एक साथ ही जीवन है यों
मुश्किल और सरल भी तो

वरें एक को तजें एक को
खंडित जीवन दृष्टि सदा
नहीं जगत में कभी किसी पर
होती सुख की वृष्टि सदा


साथ अंधेरा भी रहता है कितने दीप जलाता हूं
सच को लिखना कठिन बहुत है झूठ नहीं लिख पाता हूं

Saturday, January 1, 2011

प्रेम तब और प्रेम अब...........

नव-वर्ष की सुभकामनाओं सहित-

प्रेम तब
उस भूमि की प्यास बुझे न कभी बरसे न जहां नभ की बदली
उस फूल का जीवन व्यर्थ हुआ जिस फूल पे बैठे नहीं तितली
दिल का तुम हाल सुनो सजनी तड़पे जल के ज्यों बिना मछली
रितुराज वसंत में आन मिलो विपदा मन की सब जाय टली

प्रेम अब
बाइक पे चलते तनके वह रोड पे कार से होड़ लगायें
होठ से स्पर्श न पानी करें वह पीकर बीयर प्यास बुझायें
दौड़ में शामिल संग न जो उसको बबुआ पिछड़ा बतलायें
कुंजगली अब भाती नहीं सड़कों पर मोहन रास रचायें

रविकांत पांडेय

Thursday, October 28, 2010

तीन छंद सांस्कृतिक प्रदूषण पर

बिना किसी भूमिका के तीन छंद हाजिर करता हूं, पढ़ें और बतायें-

मानसरोवर मध्य हंस नहीं दिखते हैं

हंस की बजाय वहां कौवे मिलने लगे

फूलों वाली राह पर इतने हैं कांटे आज

पांव गर रखिये तो पांव छिलने लगें

सत्य,अहिंसा, करुणा, प्रेम कौन पूछता है

हिंसा घृणा, वैर के हैं फूल खिलने लगे

भारत की शाखों पर जितने थे पत्ते यारों

पश्चिम की आंधी आई सारे हिलने लगे

सुविचार सद्गुण को देशनिकाला घोषित

भावना को कारागृह देने की तैयारी है

भारतीय संस्कृति सर धुन रोती आज

सभ्यता के नाम पर खेल ऐसा जारी है

इसको बुझा दो बंधु बात बढ़ने से पूर्व

शोला बन जलायेगी अभी जो चिंगारी है

वरना समझ लो ये साफ़-साफ़ कहता हूं

आज मेरा घर जला कल तेरी बारी है

घोर है अंधेरा माना कुछ नहीं सूझता है

काम बस इतना है दीपक जलाइये

साधक सुजान हम ज्ञान के अनादि से हैं

जग में सर्वत्र ज्ञान-ध्वज फहराइये

लीजिये संकल्प वसुधैव कुटुंबकं का

ऊंच-नीच भेद भाव मन से मिटाइये

आइये निर्माण करें हम नये भारत का

मेरे साथ-साथ आप कदम बढ़ाइये

Saturday, October 9, 2010

देविपंचक स्तोत्रं


(चित्र गूगल से साभार)

आप सबको नवरात्रि की शुभकामनायें। कविता, गीत, गज़ल नहीं आज आपके लिये एक स्वरचित स्तोत्र। क्योंकि कविता आदि तो इस ब्लौग पर आप पढ़ते ही रहते हैं, स्तोत्र पहली बार ब्लौग पर दे रहा हूं।

देविपंचक स्तोत्रं


प्रारंभमध्यअवसानविकारहीना
लोकेषु नित्यवरदा परमा प्रसिद्धा
हर्त्री च विघ्नसकलाः नितमोदकर्त्री
आनंदमूर्ति शुभदा अयि विश्वमाते! ॥१॥


मूलं समस्तजगतादिक कारणानां
जानाम्यहं त्वमसि सर्वपुराणवेद्या
सृष्टं त्वयैव हि चराचरविश्वमेतत
अंते च गच्छति लयं त्वयि एव माते ॥२॥


अज्ञानमोहसरितांतरवारि पीत्वा
एका त्वमेव भुवनेश्वरि अद्य स्मरामि
शीघ्रातिशीघ्र हरितुं भवदुःखरोगाः
मातेश्वरी विमल दर्शय रूप मह्यं ॥३॥


ध्याये अहर्निशमहं ममतामयी त्वं
या भुक्तिमुक्तिसततं प्रददाति लोके
आधारचक्रकमले हि अधिष्ठिता च
सेवे सदा शिवप्रिया चरणारविंदौ ॥४॥


प्रातर्तदा भवति मंगल सुप्रभातं
संध्या तदा भवति इष्ट प्रदा सुसंध्या
रम्या निशा च दिवसं हि तदैव रम्यं
जिह्वा यदा जपति नाम तवैव माते॥५॥


स्तोत्ररत्नमिदं दिव्यं द्विजेन रविना कृतः।
सर्वपापविनाशकारी सद्योसिद्धिप्रदायकः॥

Thursday, September 2, 2010

मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है

प्रिय मित्रों, नमस्कार! बहुत दिनों से ब्लौगजगत से दूर हूं। सो पुनः सक्रियता के लिये जन्माष्टमी से बेहतर मौका क्या होगा। लीजिये, कुछ छंद सुनिये। सवैया एक श्रुतिमधुर छंद है। नरोतम दास का सुदामाचरित (उदाहरण- "सीस पगा न झगा तन में प्रभु जाने को आइ बसै केहि ग्रामा") या रसखान का- "मानुष हों तो वही रसखानि बसै बज गोकुल गांव के ग्वारन" से आप परिचित होंगे। ये सात भगण और दो दीर्घ का मत्तगयंद नामक सवैया है। और आनंद के लिये ये वीडियो सुनें-

।youtube.com/v/k0F3nceyxCs?fs=1&hl=en_US">


तो ये रहा संक्षिप्त परिचय। अब छंद हाजिर करता हूं, बतायें प्रयास कैसा रहा-



प्रीत की पावन पुस्तक में उसका "रवि" केवल नाम लिखा है
लोचन-तीर चला उसने उर बीच मेरे पयगाम लिखा है
पांव पड़े हैं जहां उसके तहं नूतन मंगल धाम लिखा है
मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है
(पयगाम = पैगाम)

नाम उसी का सदा घट भीतर हर्षित आठहुं याम लिखा है
दिव्य यूं शब्द कि मैंने उन्हे रिगवेद, यजुर अरु साम लिखा है

देखि छवी उसकी जो अलौकिक तो छवि को अभिराम लिखा है

मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है

(रिगवेद = ऋग्वेद, यजुर = यजुर्वेद, साम = सामवेद)


मूरत मंदिर की कह उसको बार ही बार प्रणाम लिखा है
प्रेम की बेर खिला चुपके उसने मुझको फिर राम लिखा है
मादक गंध उसे मधुमास की प्रीत बरी इक शाम लिखा है
मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है

Tuesday, July 6, 2010

प्यार के धागे से दिल के जख्म सीकर देखना

नमस्कार मित्रों! कई दिनों बाद ब्लोग पर हाज़िर हुआ हूं। पेश है एक गज़ल, अपनी राय से अवगत करायें-

प्यार के धागे से दिल के जख्म सीकर देखना
जी सको तो जिंदगी को यूं भी जीकर देखना


लेखनी तेरी रहेगी तू रहे या ना रहे
खुद को मीरा, सूर, तुलसी, जायसी कर देखना


जब सताए खूब तपती दोपहर जो जेठ की
घोलकर सत्तू चने का आप पीकर देखना


लौट जायेंगी बलायें चूमकर दर को तिरे
हौसलों की मन में चट्टानें खड़ी कर देखना


रोशनी घर में तुम्‍हारे खुद ब खुद हो जाएगी
तुम घरों में दूसरों के रोशनी कर देखना


रास्‍ते में फिर सताएंगी नहीं तनहाइयां
दर्दे-दिल से तुम सफ़र में दोसती कर देखना

(गुरूदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से कृत)

Monday, May 31, 2010

सारे रंगों को समेटती "धूप से रूठी चांदनी"





पिछले दिनों शिवना प्रकाशन, सीहोर से प्रकाशित कवयित्री (डा.) सुधा ओम ढींगरा का काव्य-संग्रह "धूप से रूठी चांदनी" पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। "धूप से रूठी चांदनी" से सुधा जी के संवेदनशील व्यक्तित्व का पता चलता है जिसे एक तरफ़ अपनी जड़ों से दूर होने का एहसास है तो वहीं दूसरी ओर रिश्तों में आया खोखलापन, मानवीय मूल्यों का ह्रास और औरत होने की पीड़ा उन्हे कचोटती है। उनकी काव्य-सरिता गंगोत्री से समतल तक आने के क्रम में कई घाटों पर विश्राम करती है जिनमें परिस्थितिवश कहीं मीठा तो कहीं खारा जल विद्यमान है। इस उपवन में कभी बहार आती है जो नासापुटों को फूलों की मादक गंध का उपहार देती है तो कभी सूनेपन का एहसास लिये पतझड़ का आगमन भी होता है। इस संग्रह से गुजरना जीवन की छोटी-बड़ी कई सचाइयों से रूबरू होने जैसा है जिनके प्रति सामान्यतया हमारा ध्यान नहीं जाता या जाता भी है तो प्रतिस्पर्धा के युग में हम तेजी से आंख मूंदकर आगे बढ़ जाते हैं। यों कहें कि बचपन की खिलखिलाहट से प्रौढ़ावस्था के गंभीर चिंतन तक, यौवन के अल्हणपन से प्रेम की पाकीजगी तक और रिश्तों की शून्यता से परिपूर्णता तक जीवन के सारे रंगों को अपने में समेटे हुये है "धूप से रूठी चांदनी"। सुधा जी ने सोहणी-महिवाल, हीर-रांझा सरीखे ढाई आखर के शाश्वत प्रतिमानों से लेकर समसामयिक ईराक युद्ध में शहीद सैनिकों, मुख्तारन माई और सुनामी लहरों के उपद्रव तक हर विषय पर लेखनी चलाई है। हृदय की अतल गहराइयों में विद्यमान संवेदना की स्याही से लिखी गई इन कविताओं की कई पंक्तियां अनायास मानस-पटल पर अंकित हो जाती हैं। सामाजिक ताने-बाने में मौजूद विसंगतियों के प्रत्युत्तर में वे कहती हैं-

मैं ऐसा समाज निर्मित करूंगी,

जहां औरत सिर्फ़ मां, बेटी,

बहन, पत्नी या प्रेमिका ही नहीं,

एक इंसान,

सिर्फ़ इंसान हो...

उसे इसी तरह जाना,

पहचाना और परखा जाये।

"कविता और नारी" और "नियति" आदि कवितायें भी प्रभावशाली तरीके से नारी पीड़ा का चित्र उकेरने में सक्षम हैं। "चांदनी से नहाने लगी..." और "आवाज़ देता है कोई उस पार..." सघन प्रेम से ओत-प्रोत रचनायें हैं। यत्र-तत्र नये बिंबों का सुंदर प्रयोग पाठकों को बरबस अपने सम्मोहन में बांध लेता है। यथा-

दिन की आड़ में

किरणों का सहारा ले

सूर्य ने सारी खुदाई

झुलसा दी.

धीरे से रात ने

चांद का मरहम लगा

तारों के फहे रख

चांदनी की पट्टी कर

सुला दी

संग्रह की कविता "मैं दीप बांटती हूं..." कवयित्री के उदात्त मानवीय गुणों का द्योतक है और भारतीय संस्कृति का परिचायक भी। कुल मिलाकर "धूप से रूठी चांदनी" पठनीय एवं संग्रहणीय है।

कृति- धूप से रूठी चाँदनी (कविता संग्रह)
कवयित्री- डॉ. सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन , पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंटबस स्टैंड, सीहोर(.प्र.)
मूल्य- 300 रुपये (20$)
पृष्ठ- 112