Sunday, July 19, 2009

यह सावन शोक नसावन है....

वर्षा के आने के साथ ही प्रकृति एक नये उल्लास से भर जाती है। वैसे तो महाकवि कालिदास "आषाढस्य प्रथम दिवसे" को वर्षा ऋतु का आरंभ मानते हैं पर ज्यादातर कवियों ने सावन को चुना है। कवि का संवेदनशील मन वर्षा देवी के आकर्षण से अछूता नहीं रह पाता। भारतेंदु जी की पंक्तियां हैं-यह सावन शोक नसावन है मनभावन या में न लाजे मरौ। यमुना पे चलौ जु सबै मिलिके अरु गाई बजाई के शोक हरो॥ बाबा नागार्जुन का- बादल को घिरते देखा है, मेरी प्रिय रचनाओं में से एक है। एक ओर वर्षा देवी का आगमन संयोग को मधुर बनाता है वहीं दूसरी ओर वियोग को और कष्टप्रद। किसी ने लिखा है-सावन की रात है कि द्रौपदी की सारी है। अन्य कई कवियों ने सुंदर-सुंदर वर्षा गीत लिखा है। कुलमिलाकर ये कहना कि वर्षा कवियों की सारस्वत साधना का एक आवश्यक तत्त्व है, अतिशयोक्ति न होगी। आइये आपको अपना वर्षा गीत पढ़वाता हूं-

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ग्रीष्म-अनल चुपचाप सहे, मुख से न कहे कुछ भी धरती
जैसे कोई तपस्विनी, अतिविकट तपस्या हो करती


आज प्रतीक्षित पुण्य फला, उमड़-घुमड़ आया सावन है
मोती-सी बूंदें बरसीं, पुलकित वसुधा का यौवन है

जीर्ण वसन त्याग योगिनी, चुनरी धानी लहराती है
पास पिया को पा गोरी, सज-धज कर ज्यों इठलाती है

काले घन के बीच कभी, दामिनि ऐसे दिख जाती है
मध्य सुहागन कुंतल के, जैसे सिंदूर सजाती है


आठों याम दादुरों की, कुछ ऐसी ध्वनियां आती हैं
किसी लग्न वेदी पर ज्यों, सुंदरियां गीत सुनाती हैं


देखो पावस के आते, जीवन गतिमान हुआ कैसे
तज समाधि की निश्चलता, योगी फिर से विचरे जैसे


ग्रीष्म तपाया करता है, पावस के आने से पहले
आवश्यक दुख से परिचय, सुख जग में पाने से पहले


जीवन एक लता जिस पर, पावस निदाघ दो फूल लगे
मैं अपनाता दोनों को, मेरे हित जो अनुकूल लगे


दूरी पल भर की प्रिय से, मन में ज्वाला सुलगाती है
जाने कब चुपके-चुपके, दबे पांव घर आ जाती है

बढ़ती विरह वेदना जब, यादों के मेघ बुलाता हूं
उर का ताप मिटाने को, नयनों से जल बरसाता हूं

17 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

रविकान्त जी पहली बार आपके ब्लॉग पर आया
बहुत अच्छा लगा..
बेहद उम्दा प्रस्तुति लगी आपकी
हम आपको बधाई देते है..
सावन की बेहतरीन पेशकश के लिए..
धन्यवाद!!!!

नीरज गोस्वामी said...

आठों याम दादुरों की, कुछ ऐसी ध्वनियां आती हैं
किसी लग्न वेदी पर ज्यों, सुंदरियां गीत सुनाती हैं

ग्रीष्म तपाया करता है, पावस के आने से पहले
आवश्यक दुख से परिचय, सुख जग में पाने से पहले

रवि भाई मन गद गद हो गया आपकी रचना पढ़ कर...आपने उपमाओं से चमत्कृत कर दिया है...वाह...आप की ऐसी अनूठी रचनाएँ ही एक दिन आपको साहित्य में शीर्ष स्थान पर पहुंचायेगी...मेरी बधाई स्वीकार करें...
नीरज

प्रतिभा कुशवाहा said...

ES sawan me baris ho ya na ho per aap ke blog per baris dekh kar baris ka ehsaas ho gaya....

संजीव गौतम said...

काले घन के बीच कभी, दामिनि ऐसे दिख जाती है
मध्य सुहागन कुंतल के, जैसे सिंदूर सजाती .
वाह रवि भाई क्या सजीव चित्रण किया है. बरिश के फोटो से एक बार तो बाहर बारिश होने का भ्रम हो गया. बहुत बढिया.....

"अर्श" said...

वाह गुरु भाई क्या बात है .... ये बर्षा गीत तो पढ़ के मुग्ध हो गया ... आपकी इसी लेखन का तो मैं कायल हूँ हिंदी के शब्द वाकई आपके पास शब्दकोष बहोत बढ़ी है मजा आगया .. बहोत बहोत बधाई ...


अर्श

दिगम्बर नासवा said...

रवि जी........ हमारा मन भी भीग गया आपकी इस सुन्दर प्रस्तुति पर............ बहूत ही लाजवाब......... साथ में बारीच का चित्र ........... खूबसूरत

कंचन सिंह चौहान said...

आपकी सभी कविताएं पवित्रता का एहसास लिये होती हैं...! ये आपके सरल व्यक्तित्व की परिचायक हैं...! पढ़ने के बाद के सुख को बयाँ करना मेरे लिये मुश्किल है।

आपकी सभी कविताएं पवित्रता का एहसास लिये होती हैं...! ये आपके सरल व्यक्तित्व की परिचायक हैं...! पढ़ने के बाद के सुख को बयाँ करना मेरे लिये मुश्किल है।

कविता पढ़ने के बाद पहला काम तो ये किया कि इस चित्र को सेव करके अपने डेस्कटॉप पर डाला कम से कम आँखों को तो कुछ ठंडक मिले...! प्रकृति तो कृपाल हो नही रही..!

रंजू भाटिया said...

वाह बहुत ही अच्छी लगी आपकी यह रचना सच में बारिश नहीं नहीं हो रही है पर यह एहसास ही पढने में सुखद लगा शुक्रिया

डॉ टी एस दराल said...

भाई पाण्डेय जी, सावन का महीना और बारिस की रिमझिम फुहारें, देखकर और पढ़कर मन बाग बाग़ हो गया.आपके हिंदी ज्ञान का तो कोई ज़वाब नहीं. बस थोडा सरल भाषा में लिखें तो और आनंद आएगा.
बहुत अच्छा है . बधाई

मुकेश कुमार तिवारी said...

रविकांत जी,

बहुत ही सुन्दर वर्षा गीत, मैं तो गुनगुनाता चला गया। एक क्लासिकल अंदाज वाली रचना, बहुत अच्छी लगी।

कल ही तो आपसे परिचय हुआ था, श्री पंकज सुबीर साहब ब्लॉग पर, जहाँ आप दूल्हे बने नज़र आ रहे हैं एक बेहद खूबसूरत गज़ल के साथ।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन काव्य रचना... साधुवाद..

Manish Kumar said...

क्या बात है हुजूर... आपकी इस रचना का हर छंद मन को हर गया। सावन के विविध रंगों से आपने मन को सराबोर कर दिया।

निर्मला कपिला said...

काले घन के बीच कभी, दामिनि ऐसे दिख जाती है
मध्य सुहागन कुंतल के, जैसे सिंदूर सजाती ह
सुन्दर सामयिक रचना बधाई

पंकज सुबीर said...

दूरी पल भर की प्रिय से, मन में ज्वाला सुलगाती है
जाने कब चुपके-चुपके, दबे पांव घर आ जाती है
सुंदर वर्षा गीत । वर्षा तो कवियों की प्रिय ऋतु है ।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सावन की बेहतरीन सामयिक पेशकश के लिए बहुत बहुत बधाई.....

गौतम राजऋषि said...

इन उपमाओं पे, इन शब्द-सौंदर्य पे और इन कोमल भावों पे हम मुग्ध हैं...रवि तुम कमाल के हो। ये पंक्तियां "आवश्यक दुख से परिचय, सुख जग में पाने से पहले" , "उर का ताप मिटाने को, नयनों से जल बरसाता हूं" एक श्रेष्ठ कवि की झलकी दिखलाती है।

a research scientist poet...aah!

गर्दूं-गाफिल said...

शब्द कांति ने सावन के संग भावों का इन्द्र धनुष रच डाला
मनभावन अनुमद कृतियों की नित प्रति कंठ पडे माला

बधाई