इस पोस्ट पर पाठकों की प्रतिक्रिया कैसी होगी नहीं जानता पर कुछ कारण है इसे लगाने के पीछे। हुआ यूँ कि हाल में मुझे पुरानी हिन्दी फ़िल्म (नई देखने से तो जी घबराता है) देखने की इच्छा हुई और मेरे हाथ लगी-सत्यम शिवम सुन्दरम। फ़िल्म कितने ही सुंदर गीतों से सुसज्जित है जैसे-यशोमति मैया से बोले नंदलाला...आदि। इसीमें एक गीत है जो आपने जरूर सुना होगा (आवाज संभवतः लता जी की है)-
रंगमहल के दश दरवाजे
ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी
सैंया निकस गये मैं ना लड़ी थी
सर को झुकाये मैं तो चुपके खड़ी थी
सैंया निकस गये...
इस गीत में इतनी कशिश है जो बरबस श्रोता को किसी अन्य लोक में खींच ले जाती है। लेकिन गीत सुनने के बाद मैं थोड़ा हैरान हुआ क्योंकि जिस संदर्भ में इसे प्रयोग किया गया है वह गीत के मूल से मेल नहीं खाता। साधारण शाब्दिक अर्थों में इसे लिया गया है जबकि यह गीत अलौकिक सुगंध से ओत-प्रोत है। खैर अब आता हूँ अपनी बात पर, मुझे एक अन्य गीत का पता चला जो संत कबीर की बेटी कमाली के नाम से अमर है। उसे मैं आपके सामने रखता हूँ, शेष निर्णय पाठकों पर छोड़ता हूँ-
सैंया निकस गये मैं ना लड़ी थी
ना कछु बोली ना कछु चाली
सर को झुकाये मैं तो चुपके खड़ी थी
सैंया निकस गये...
मेरी न मानो सहेली से पूछो
चादर ओढ़ पलंगा पर पड़ी थी
सैंया निकस गये...
रंगमहल के दश दरवाजे
ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी
सैंया निकस गये...
कहत कमाली कबीर की बेटी
ऐसी बियाही से तो कुँआरी भली थी
सैंया निकस गये...
पाठक सहमत होंगे इस बात से कि कमाली का गीत निर्गुन परंपरा से संबंध रखता है जहाँ प्रतीकों में बात कही जाती है। लौकिक घटनाओं के सहारे अलौकिक की ओर इशारा किया जाता है। इस तरह के प्रयोगका यह पहला उदाहरण तो नहीं है और देखा जाये तो बहुत बुराई भी नहीं है इसमे फ़िर भी मुझे गीत अपने मूल रूप और संदर्भ में ही ज्यादा प्यारा लगता है।
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2 weeks ago