Friday, October 10, 2008

ऐसी बियाही से तो कुँआरी भली थी.....

इस पोस्ट पर पाठकों की प्रतिक्रिया कैसी होगी नहीं जानता पर कुछ कारण है इसे लगाने के पीछे। हुआ यूँ कि हाल में मुझे पुरानी हिन्दी फ़िल्म (नई देखने से तो जी घबराता है) देखने की इच्छा हुई और मेरे हाथ लगी-सत्यम शिवम सुन्दरम। फ़िल्म कितने ही सुंदर गीतों से सुसज्जित है जैसे-यशोमति मैया से बोले नंदलाला...आदि। इसीमें एक गीत है जो आपने जरूर सुना होगा (आवाज संभवतः लता जी की है)-
रंगमहल के दश दरवाजे
ना
जाने कौन सी खिड़की खुली थी
सैंया निकस गये मैं ना लड़ी थी
सर को झुकाये मैं तो चुपके खड़ी थी
सैंया निकस गये...

इस गीत में इतनी कशिश है जो बरबस श्रोता को किसी अन्य लोक में खींच ले जाती है। लेकिन गीत सुनने के बाद मैं थोड़ा हैरान हुआ क्योंकि जिस संदर्भ में इसे प्रयोग किया गया है वह गीत के मूल से मेल नहीं खाता। साधारण शाब्दिक अर्थों में इसे लिया गया है जबकि यह गीत अलौकिक सुगंध से ओत-प्रोत है। खैर अब आता हूँ अपनी बात पर, मुझे एक अन्य गीत का पता चला जो संत कबीर की बेटी कमाली के नाम से अमर है। उसे मैं आपके सामने रखता हूँ, शेष निर्णय पाठकों पर छोड़ता हूँ-
सैंया निकस गये मैं ना लड़ी थी
ना कछु बोली ना कछु चाली
सर को झुकाये मैं तो चुपके खड़ी थी
सैंया निकस गये...
मेरी न मानो सहेली से पूछो
चादर ओढ़ पलंगा पर पड़ी थी
सैंया निकस गये...
रंगमहल के दश दरवाजे
ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी
सैंया निकस गये...
कहत कमाली कबीर की बेटी
ऐसी बियाही से तो कुँआरी भली थी
सैंया निकस गये...
पाठक सहमत होंगे इस बात से कि कमाली का गीत निर्गुन परंपरा से संबंध रखता है जहाँ प्रतीकों में बात कही जाती है। लौकिक घटनाओं के सहारे अलौकिक की ओर इशारा किया जाता है। इस तरह के प्रयोगका यह पहला उदाहरण तो नहीं है और देखा जाये तो बहुत बुराई भी नहीं है इसमे फ़िर भी मुझे गीत अपने मूल रूप और संदर्भ में ही ज्यादा प्यारा लगता है।

Tuesday, October 7, 2008

एक डूबकी गीतों के गंगोत्री में

अनेकानेक अमर गीतों के रचयिता श्री राकेश खण्डेलवाल
जी की पुस्तक "अंधेरी रात का सूरज" का विमोचन ११ अक्टूबर को होने जा रहा है। गुरू जी ने इस सप्ताह को उन्हे समर्पित करने का आह्वान किया है। इधर गौतम जी कह रहे हैं और बात भी सही है कि मैंने कई दिनों से कुछ पोस्ट नहीं किया है। तो मै एक पंथ दो काज की तर्ज पर राकेश जी को शब्दों की एक छोटी सी भेंट समर्पित करता हूँ। पहले सोच रहा था उनकी कोई कविता/गीत लगाऊँ पर जब उनके ब्लाग पर गया तो शीघ्र ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया। इतनी सारी मोहक रचनाएँ कि आखिर किसे लिया जाए? भर्तृहरि की पंक्तियाँ स्मरण हो आयीं-
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धा: कवीश्वरा:।
नास्ति येषां यश:काये जरामरणजं भयम्||
सच में यशस्वी कवि जन्म मृत्यु के भय से मुक्त अपनी रचनाओं के माध्यम से हमेशा जिन्दा रहते हैं। खैर, मुझे लग गया कि अगर चयन के चक्कर में पड़ा तो और कई दिनों तक कुछ पोस्ट कर पाऊँगा अतः लाचार होकर मैने ही उनके लिये दो-चार शब्द लिखा। जो कुछ अपने टूटे-फूटे शब्दों में पिरो पाया आपके सामने रखता हूँ-

खिल रही कलियाँ हृदय में,
प्रीत का मधुमास आया

पाकर मृदु-स्पर्श तुम्हारा
झंकृत मेरे मन की वीणा
भेद तुम्ही से ज्ञात हुआ ये
गीतों की जननि है पीड़ा

धरती के फ़िर आलिंगन में
बंधन को आकाश आया

शब्द-साधना से निरंतर
अलख जो तुमने जगाया
दिव्यता की इक झलक से
महक उठी मिट्टी की काया

दीक्षा लेने द्वार तुम्हारे
चलकर खुद संन्यास आया