यूं घाव बेहिसाब दिये, पर दवा नहीं
फिर भी मुझे ज़माने से कोई गिला नहीं
ये धूप पांव रोक ही लेती मिरे अगर
बन छांव साथ चलती जो मां की दुआ नहीं
कोई खुशी नसीब उसे कब हुई भला
औरों की जो खुशी का कभी सोचता नहीं
है मौज बस लुटेरों की चोरों की आजकल
उसकी हजार आंखें हैं क्यूं देखता नहीं
उसको भी रहबरी का लगा शौक देखिये
वो शख्स जिसको अपना ही कुछ भी पता नहीं
पहचानिये किसी को फकत उसके कर्म से
होता कोई जनम से ही अच्छा बुरा नहीं
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
होता जहां है सबके मुकद्दर का फैसला
उसकी गली को कौन भला जानता नहीं
रोशन उसी का नाम है इतिहास में हुआ
मर मिट गया जो आन पे लेकिन झुका नहीं
नजरें मिलीं जो उनसे तो ऐसा लगा मुझे
मैं आ गया मुकाम पे जबके चला नहीं
रवि ढूंढना तू बाद में औरों की खामियां
तू मन में पहले अपने ही क्यों ढूंढता नहीं
(बहर-मुज़ारे मुसमन अखरब मकफ़ूफ़ महजूफ़,
वज़न-२२१ २१२१ १२२१ २१२)