Wednesday, April 22, 2009

उसको भी रहबरी का लगा शौक देखिये...

कभी-कभी अजीब सी उलझनें आ जाती हैं। लगता है एक दिन में सिर्फ़ २४ घंटे ही क्यों हैं? कई दिनों से कुछ लिखना चाह रहा था पर कुछ न कुछ व्यवधान आ जा रहा था। इसी बीचं गुरूदेव के पारस-परस से संवरी हुई एक गज़ल आ गई है जो आपके सम्मुख प्रस्तुत है।

यूं घाव बेहिसाब दिये, पर दवा नहीं
फिर भी मुझे ज़माने से कोई गिला नहीं

ये धूप पांव रोक ही लेती मिरे अगर
बन छांव साथ चलती जो मां की दुआ नहीं


कोई खुशी नसीब उसे कब हुई भला
औरों की जो खुशी का कभी सोचता नहीं

है मौज बस लुटेरों की चोरों की आजकल

उसकी हजार आंखें हैं क्‍यूं देखता नहीं

उसको भी रहबरी का लगा शौक देखिये
वो शख्‍स जिसको अपना ही कुछ भी पता नहीं

पहचानिये किसी को फकत उसके कर्म से
होता कोई जनम से ही अच्‍छा बुरा नहीं

क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं

होता जहां है सबके मुकद्दर का फैसला
उसकी गली को कौन भला जानता नहीं

रोशन उसी का नाम है इतिहास में हुआ
मर मिट गया जो आन पे लेकिन झुका नहीं


नजरें मिलीं जो उनसे तो ऐसा लगा मुझे
मैं आ गया मुकाम पे जबके चला नहीं

रवि ढूंढना तू बाद में औरों की खामियां
तू मन में पहले अपने ही क्‍यों ढूंढता नहीं

(बहर-मुज़ारे मुसमन अखरब मकफ़ूफ़ महजूफ़,
वज़न-२२१ २१२१ १२२१ २१२)

Thursday, April 2, 2009

द्वार तुम्हारे पहुँचा जब मैं.....

सीखने की प्रक्रिया में हूँ और सोचता हूँ कुछ सार्थक लिखूँ , पर कई बार ऐसा होता है जब हृदय का कोई भाव विद्रोह कर उठता है और अक्षरों में ढल जाता है। साहित्य की दृष्टि से ये उत्कृष्ट हो या हो पर इसे लिखकर दिल को अजीब सा सुकून मिलता है।




द्वार तुम्हारे पहुँचा जब मैं धूप दीप नैवेद्य नहीं था
रीत निभाने की खातिर मैं अपने स्वप्न चढ़ा आया

रस छंद और अलंकार की
कठिन तपस्या हुई हमसे
चाहा तो था लेकिन मुक्ति
मिली नहीं अंतर के तम से

भर-भर झोली ले जाते सब रिक्त हस्त मैं क्या करता
रूप तुम्हारा नयनों में भर मैं चुपचाप चला आया

निष्फल श्रम था, पटी नहीं
इच्छाओं की गहरी खाई
किस पथ का लूँ आलंबन
बुद्धि ये सोच नहीं पाई

खोकर वय की पूँजी सारी धर्म-ग्रंथ के पन्नों में
सहज हृदय की भाषा को मैं पावन मंत्र बता आया