Wednesday, August 26, 2009

दो छंद पढ़िये आज की हालात पर....

नमस्कार साथियों! आज की हालात पर कुछ कहना चाह रहा था। सोचा एक लंबा लेख लिखूं लेकिन अच्छा लगा कि बात कविता के सहारे आप तक पहुंचाई जाये। तो आइये जुड़ते हैं इस घनाक्षरी दंडक से-

(१)
खेत-खेत फैल गये, खर-पतवार अब
कितना भी काटो पर, फ़िर-फ़िर आते हैं
अपना ठिकाना नहीं, लेकिन दूसरों का वो
भावी और भूत सब, पल में बताते हैं

फ़िरते लगाये घात, गली-गली चौक-चौक
भेड़ की पहन खाल, भेड़िये लुभाते हैं
संक्रमण-काल में हैं, हिंदी कवितायें आज
चुटकुले पढ़ कवि, ताली बजवाते हैं

(२)
कोई आके भर देगा, हीरे-मोती झोलियों में
कबसे भरम में है, जनता खड़ी हुई
कैसा है विकास यह, रोग का इलाज जब

कहीं पे भभूत कहीं, जादू की छड़ी हुई
और हाल ऐसा मेरे, देश के नेताओं का है
गिद्ध की निगाह जैसे, लाश पे गड़ी हुई
होते गर एक-दो तो, बात कोई करता मैं
लगता है कुंए में ही, भांग है पड़ी हुई

Friday, August 21, 2009

प्रेम तो हर पल नया है......

आज इस कविता को पोस्ट करते वक्त ईश्वर से प्रार्थनारत हूं कि आप तक इसका सही भाव ही संप्रेषित हो। बस भूमिका में और कुछ लिखने का मन नहीं है।

सदा वही मैं गीत सुनाऊं, तुमने चाहा है मुझसे
पर ये कहता सत्य सृष्टि का, प्रेम तो हर पल नया है

हर ठौर उसी का वास अगर, एक ठौर फिर बंधना क्या
दोनों भरते हैं जीवन को धूप-छांह से बचना क्या

आग, हवा, पानी पर भाई, जब कोई प्रतिबंध नहीं
लक्ष्मण-रेखा खींच-खींचकर मेरा-मेरा जपना क्या

अलग-अलग हैं रूप-रंग पर गुण तो एक समाहित है

प्यास धरा की मिटे, इष्ट हो, मत कहें बादल नया है

ठहराव निशानी जड़ता की, गति जीवन की परिभाषा

नील गगन के पंछी को पिंजरे से कैसी आशा
किसी कली का किसी भ्रमर से आजीवन संबंध रहे
है ये केवल पागल मन की, रूग्ण, सशंकित अभिलाषा

कल-कल, कल-कल बहते रहना सहज नियम है धारा का
आप न बदलें रोज नाम पर रोज गंगाजल नया है

Saturday, August 15, 2009

बहुत हुई पूजा देवों की, कर दो मूर्त्ति विसर्जन आज...

स्वतंत्रता दिवस मनाने का मेरा अपना ही ढंग है। सच कहूं तो भारत के संबंध में मुझे दिनकर जी की बात याद आती है जो कहते हैं-मानचित्रों में नहीं हृदय में शेष कहीं भारत है। चाहता हूं, प्रेम के गीत लिखूं पर जब अपने भारत को देखता हूं, जब देखता हूं इसके सामाजिक वैषम्य को...तो फिर कलम कुछ और ही लिखने लगती है। इसलिये मेरी रचनाओं में हमेंशा एकस्वर नहीं आ पाता बल्कि उसमें सृजन और विध्वंस दोनों का समावेश है। मेरे एक गीत की दो पंक्तियां हैं-

उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में

खैर पूरा गीत कभी बाद में। अभी तो आपके लिये एक बिल्कुल नई रचना सामने रखता हूं।आल्हा में लिखी गई है। स्वतंत्रतादिवस पर इसके सिवा और क्या दूं आपको-


तुम्हे रूला जो हंसते, उनको, करना होगा क्रंदन आज
बहुत हुई पूजा देवों की, कर दो मूर्त्ति विसर्जन आज

भीख नहीं स्वीकार हमें है चाहे दाता हो भगवान
नहीं चलेगा झोपड़ियों का महलों के हाथों अपमान
सुनो स्वर्ग के ठेकेदारों भय का जुटा रहे सामान
होनी की परवाह करे कब जिसने रखी हथेली जान

कड़क रही ये बिजली देखो है भीषण घन गर्जन आज
दम लेगा सर्वस्व बहाकर क्रोधातुर है सावन आज

छला गया जो युगों युगों तक निशिदिन करके कपट प्रहार
आज डटा है समरभूमि में दुर्जय लिये हाथ तलवार
रणचंडी को भेंट चढ़ाता काट काट मुंडों के हार
खंडित मायाजाल तुम्हारा ओ निर्दय हो जा तैयार

मना रहे जो जश्न सुनें वे इंद्रजीत के प्रियजन आज
बूटी दी है स्वयं काल ने जाग उठा फिर लछिमन आज

Tuesday, August 11, 2009

तीन डग में वामन वो, जग को नाप जाता है...

कई दिनों बाद फ़िर आपसे मुखातिब हूं, एक गज़ल के साथ जिसे संवारकर कहने लायक बनाया है गुरूदेव पंकज सुबीर जी ने। बहर है-बहरे हजज मुसमन अशतर। इसी बहर की प्रसिद्ध गज़ल जिंदगी की राहों में रंजो-गम के मेले हैं। भीड़ है कयामत की और हम अकेले हैं॥ उस्ताद जफ़र अली की आवाज में आपने जरूर सुनी होगी। कुछ सालों पहले आई गज़ल तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे भी इसी बहर में है। पिछले दिनों इस बहर पर गुरूजी तरही मुशायरे का भी आयोजन कर चुके हैं। पढ़िये इस गज़ल को और आशीर्वाद दीजिए-

छीनकर मिरी नींदें रातभर जगाता है
दिल का हाय जख्मों से कौन सा ये नाता है

इश्क की गली सूनी पर अजब है दीवाना
लेके फूल हाथों में अब भी रोज आता है

रोशनी सी होती है रोज मन के आंगन में
कौन है जो चुपके से दीप ये जलाता है

अब तो उससे मिलने को धड़कनें मचलती हैं
दूर कोई गीतों में नाम ले बुलाता है

होश कुछ है राजाओं, दीन जिसको समझे हो
तीन डग में वामन वो, जग को नाप जाता है

द्वारका ना मथुरा में और ना अयोध्‍या में
वो तो बस मिरे मन में अब धुनी रमाता है

सांस सबकी रुक जाएं, और हवाएं थम जाएं
धीरे धीरे दिलबर यूं घूंघटा उठाता है

देखकर रजा उसकी रो पड़ा सितमगर भी
चोट जो लगे तो रवि और मुस्कुराता है

Wednesday, August 5, 2009

बंधन, जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं

विद्रोही मन किसी भी बंधन को मानता नहीं पर बात जब रक्षाबंधन जैसे बंधनों कि हो तो सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि ये ऐसे बंधन हैं जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं। पढ़िये इस विद्रोही मन और बंधन के समागम से उपजी इस कविता को जिसे जन्म देने के क्रम में मनोगत प्रसव-पीड़ा से भी होकर गुजरना पड़ा है...पर सृजन के सुख के समक्ष वह पीड़ा कुछ भी नहीं....


नीति-रीति के कठिन पाश को यथाशक्ति इंकार किया है
पर यदि बंधन स्नेहयुक्त हो, तो, हंसकर स्वीकार किया है

गायक हूं मैं क्रांति-गीत का, शब्दों से अलख जगाता हूं
भर-भरकर गीतों में ज्वाला, जगती में प्रलय मचाता हूं
बोझ हटाता हूं माथे से, जीर्ण-शीर्ण सब संस्कारों के
स्वागत में फिर तरुणाई के, निज श्रद्धा-सुमन चढ़ाता हूं

है ये सच किंचित भी मुझको, नश्वर शरीर का मोह नहीं
किन्हीं क्षणों में पर इस तन में, शाश्वत ने शृंगार किया है

भेद अनूठा जाना जबसे, श्वास-श्वास में अभिनंदन है
बंधन में है मुक्ति समाहित, और मुक्ति में भी बंधन है
हो गई तुल्य देवालय के ये मिट्टी की काया अब तो
दीप-शिखा सी आत्मज्योति है, बुद्धि धूप है, मन चंदन है

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया