Thursday, October 28, 2010

तीन छंद सांस्कृतिक प्रदूषण पर

बिना किसी भूमिका के तीन छंद हाजिर करता हूं, पढ़ें और बतायें-

मानसरोवर मध्य हंस नहीं दिखते हैं

हंस की बजाय वहां कौवे मिलने लगे

फूलों वाली राह पर इतने हैं कांटे आज

पांव गर रखिये तो पांव छिलने लगें

सत्य,अहिंसा, करुणा, प्रेम कौन पूछता है

हिंसा घृणा, वैर के हैं फूल खिलने लगे

भारत की शाखों पर जितने थे पत्ते यारों

पश्चिम की आंधी आई सारे हिलने लगे

सुविचार सद्गुण को देशनिकाला घोषित

भावना को कारागृह देने की तैयारी है

भारतीय संस्कृति सर धुन रोती आज

सभ्यता के नाम पर खेल ऐसा जारी है

इसको बुझा दो बंधु बात बढ़ने से पूर्व

शोला बन जलायेगी अभी जो चिंगारी है

वरना समझ लो ये साफ़-साफ़ कहता हूं

आज मेरा घर जला कल तेरी बारी है

घोर है अंधेरा माना कुछ नहीं सूझता है

काम बस इतना है दीपक जलाइये

साधक सुजान हम ज्ञान के अनादि से हैं

जग में सर्वत्र ज्ञान-ध्वज फहराइये

लीजिये संकल्प वसुधैव कुटुंबकं का

ऊंच-नीच भेद भाव मन से मिटाइये

आइये निर्माण करें हम नये भारत का

मेरे साथ-साथ आप कदम बढ़ाइये

Saturday, October 9, 2010

देविपंचक स्तोत्रं


(चित्र गूगल से साभार)

आप सबको नवरात्रि की शुभकामनायें। कविता, गीत, गज़ल नहीं आज आपके लिये एक स्वरचित स्तोत्र। क्योंकि कविता आदि तो इस ब्लौग पर आप पढ़ते ही रहते हैं, स्तोत्र पहली बार ब्लौग पर दे रहा हूं।

देविपंचक स्तोत्रं


प्रारंभमध्यअवसानविकारहीना
लोकेषु नित्यवरदा परमा प्रसिद्धा
हर्त्री च विघ्नसकलाः नितमोदकर्त्री
आनंदमूर्ति शुभदा अयि विश्वमाते! ॥१॥


मूलं समस्तजगतादिक कारणानां
जानाम्यहं त्वमसि सर्वपुराणवेद्या
सृष्टं त्वयैव हि चराचरविश्वमेतत
अंते च गच्छति लयं त्वयि एव माते ॥२॥


अज्ञानमोहसरितांतरवारि पीत्वा
एका त्वमेव भुवनेश्वरि अद्य स्मरामि
शीघ्रातिशीघ्र हरितुं भवदुःखरोगाः
मातेश्वरी विमल दर्शय रूप मह्यं ॥३॥


ध्याये अहर्निशमहं ममतामयी त्वं
या भुक्तिमुक्तिसततं प्रददाति लोके
आधारचक्रकमले हि अधिष्ठिता च
सेवे सदा शिवप्रिया चरणारविंदौ ॥४॥


प्रातर्तदा भवति मंगल सुप्रभातं
संध्या तदा भवति इष्ट प्रदा सुसंध्या
रम्या निशा च दिवसं हि तदैव रम्यं
जिह्वा यदा जपति नाम तवैव माते॥५॥


स्तोत्ररत्नमिदं दिव्यं द्विजेन रविना कृतः।
सर्वपापविनाशकारी सद्योसिद्धिप्रदायकः॥

Thursday, September 2, 2010

मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है

प्रिय मित्रों, नमस्कार! बहुत दिनों से ब्लौगजगत से दूर हूं। सो पुनः सक्रियता के लिये जन्माष्टमी से बेहतर मौका क्या होगा। लीजिये, कुछ छंद सुनिये। सवैया एक श्रुतिमधुर छंद है। नरोतम दास का सुदामाचरित (उदाहरण- "सीस पगा न झगा तन में प्रभु जाने को आइ बसै केहि ग्रामा") या रसखान का- "मानुष हों तो वही रसखानि बसै बज गोकुल गांव के ग्वारन" से आप परिचित होंगे। ये सात भगण और दो दीर्घ का मत्तगयंद नामक सवैया है। और आनंद के लिये ये वीडियो सुनें-

।youtube.com/v/k0F3nceyxCs?fs=1&hl=en_US">


तो ये रहा संक्षिप्त परिचय। अब छंद हाजिर करता हूं, बतायें प्रयास कैसा रहा-



प्रीत की पावन पुस्तक में उसका "रवि" केवल नाम लिखा है
लोचन-तीर चला उसने उर बीच मेरे पयगाम लिखा है
पांव पड़े हैं जहां उसके तहं नूतन मंगल धाम लिखा है
मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है
(पयगाम = पैगाम)

नाम उसी का सदा घट भीतर हर्षित आठहुं याम लिखा है
दिव्य यूं शब्द कि मैंने उन्हे रिगवेद, यजुर अरु साम लिखा है

देखि छवी उसकी जो अलौकिक तो छवि को अभिराम लिखा है

मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है

(रिगवेद = ऋग्वेद, यजुर = यजुर्वेद, साम = सामवेद)


मूरत मंदिर की कह उसको बार ही बार प्रणाम लिखा है
प्रेम की बेर खिला चुपके उसने मुझको फिर राम लिखा है
मादक गंध उसे मधुमास की प्रीत बरी इक शाम लिखा है
मैंने लिखा निज राधा उसे, उसने मुझको घनश्याम लिखा है

Tuesday, July 6, 2010

प्यार के धागे से दिल के जख्म सीकर देखना

नमस्कार मित्रों! कई दिनों बाद ब्लोग पर हाज़िर हुआ हूं। पेश है एक गज़ल, अपनी राय से अवगत करायें-

प्यार के धागे से दिल के जख्म सीकर देखना
जी सको तो जिंदगी को यूं भी जीकर देखना


लेखनी तेरी रहेगी तू रहे या ना रहे
खुद को मीरा, सूर, तुलसी, जायसी कर देखना


जब सताए खूब तपती दोपहर जो जेठ की
घोलकर सत्तू चने का आप पीकर देखना


लौट जायेंगी बलायें चूमकर दर को तिरे
हौसलों की मन में चट्टानें खड़ी कर देखना


रोशनी घर में तुम्‍हारे खुद ब खुद हो जाएगी
तुम घरों में दूसरों के रोशनी कर देखना


रास्‍ते में फिर सताएंगी नहीं तनहाइयां
दर्दे-दिल से तुम सफ़र में दोसती कर देखना

(गुरूदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से कृत)

Monday, May 31, 2010

सारे रंगों को समेटती "धूप से रूठी चांदनी"





पिछले दिनों शिवना प्रकाशन, सीहोर से प्रकाशित कवयित्री (डा.) सुधा ओम ढींगरा का काव्य-संग्रह "धूप से रूठी चांदनी" पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। "धूप से रूठी चांदनी" से सुधा जी के संवेदनशील व्यक्तित्व का पता चलता है जिसे एक तरफ़ अपनी जड़ों से दूर होने का एहसास है तो वहीं दूसरी ओर रिश्तों में आया खोखलापन, मानवीय मूल्यों का ह्रास और औरत होने की पीड़ा उन्हे कचोटती है। उनकी काव्य-सरिता गंगोत्री से समतल तक आने के क्रम में कई घाटों पर विश्राम करती है जिनमें परिस्थितिवश कहीं मीठा तो कहीं खारा जल विद्यमान है। इस उपवन में कभी बहार आती है जो नासापुटों को फूलों की मादक गंध का उपहार देती है तो कभी सूनेपन का एहसास लिये पतझड़ का आगमन भी होता है। इस संग्रह से गुजरना जीवन की छोटी-बड़ी कई सचाइयों से रूबरू होने जैसा है जिनके प्रति सामान्यतया हमारा ध्यान नहीं जाता या जाता भी है तो प्रतिस्पर्धा के युग में हम तेजी से आंख मूंदकर आगे बढ़ जाते हैं। यों कहें कि बचपन की खिलखिलाहट से प्रौढ़ावस्था के गंभीर चिंतन तक, यौवन के अल्हणपन से प्रेम की पाकीजगी तक और रिश्तों की शून्यता से परिपूर्णता तक जीवन के सारे रंगों को अपने में समेटे हुये है "धूप से रूठी चांदनी"। सुधा जी ने सोहणी-महिवाल, हीर-रांझा सरीखे ढाई आखर के शाश्वत प्रतिमानों से लेकर समसामयिक ईराक युद्ध में शहीद सैनिकों, मुख्तारन माई और सुनामी लहरों के उपद्रव तक हर विषय पर लेखनी चलाई है। हृदय की अतल गहराइयों में विद्यमान संवेदना की स्याही से लिखी गई इन कविताओं की कई पंक्तियां अनायास मानस-पटल पर अंकित हो जाती हैं। सामाजिक ताने-बाने में मौजूद विसंगतियों के प्रत्युत्तर में वे कहती हैं-

मैं ऐसा समाज निर्मित करूंगी,

जहां औरत सिर्फ़ मां, बेटी,

बहन, पत्नी या प्रेमिका ही नहीं,

एक इंसान,

सिर्फ़ इंसान हो...

उसे इसी तरह जाना,

पहचाना और परखा जाये।

"कविता और नारी" और "नियति" आदि कवितायें भी प्रभावशाली तरीके से नारी पीड़ा का चित्र उकेरने में सक्षम हैं। "चांदनी से नहाने लगी..." और "आवाज़ देता है कोई उस पार..." सघन प्रेम से ओत-प्रोत रचनायें हैं। यत्र-तत्र नये बिंबों का सुंदर प्रयोग पाठकों को बरबस अपने सम्मोहन में बांध लेता है। यथा-

दिन की आड़ में

किरणों का सहारा ले

सूर्य ने सारी खुदाई

झुलसा दी.

धीरे से रात ने

चांद का मरहम लगा

तारों के फहे रख

चांदनी की पट्टी कर

सुला दी

संग्रह की कविता "मैं दीप बांटती हूं..." कवयित्री के उदात्त मानवीय गुणों का द्योतक है और भारतीय संस्कृति का परिचायक भी। कुल मिलाकर "धूप से रूठी चांदनी" पठनीय एवं संग्रहणीय है।

कृति- धूप से रूठी चाँदनी (कविता संग्रह)
कवयित्री- डॉ. सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन , पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंटबस स्टैंड, सीहोर(.प्र.)
मूल्य- 300 रुपये (20$)
पृष्ठ- 112

Sunday, May 16, 2010

सीहोर का मुशायरा, हठीला जी के घर काव्य-गोष्ठी और वो टैक्सी वाला

श्री विद्या के उपासकों के बीच प्रचलित है-

यत्रास्ति भोगो तत्र मोक्षः

यत्रास्ति मोक्षो तत्र भोगः।

श्रीसुंदरी सेवनतत्पराणां

भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव॥

जहां भोग है, वहां मोक्ष नहीं और जहां मोक्ष है वहां भोग नहीं। लेकिन त्रिपुरसुंदरी के आराधक को भोग और मोक्ष दोनों हस्तगत होते हैं। जब सीहोर के बारे में सोचता हूं तो पाता हूं कि " जहां साहित्य है वहां प्रशंसक नहीं और जहां प्रशंसक हैं वहां साहित्य नहीं। लेकिन सीहोर में साहित्य और साहित्य के प्रशंसक दोनों एक ही साथ मौजूद हैं। या ऐसा कहें कि जो भोजन स्वादिष्ट होता है वो स्वास्थ्यप्रद नहीं होता और जो स्वास्थ्यप्रद होता है वो स्वादिष्ट नहीं होता। लेकिन सीहोर और उससे भी बढ़कर गुरूदेव का सान्निध्य ऐसा भोजन है जो स्वादिष्ट भी है और स्वास्थ्यप्रद भी। पिछले ८ मई, शनिवार को सुकवि मोहन राय की स्मृति में आयोजित मुशायरे में पद्मश्री और हर दिल अजीज बशीर बद्र जी, पद्मश्री बेकल उत्साही जी, राहत इंदौरी जी समेत कई दिग्गजों से रूबरू होने का मौका मिला। कार्यक्रम की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ सकते हैं, फिलहाल कुछ छायाचित्र देखें-


पुस्तक विमोचन और भव्य मुशायरा


१. पद्मश्रीबशीरबद्र जी के साथ २। पद्मश्री बेकल उत्साही जी के साथ

३.नुसरत मेंहदी साहिबा के साथ ४.डा. राहत इंदौरी जी के साथ


अगला दिन गुरूभाई अंकित सफर के नाम रहा। आदरणीय रमेंश हठीला जी ने अंकित के जन्मदिन के उपलक्ष्य में काव्य-गोष्ठी सह भोज रखा-


.काव्यगोष्ठी २. गुरूदेव के साथ चांडाल चौकड़ी(बायें से अर्श, अंकित, गुरूदेव, वीनस और मैं)

.मोनिका दीदी अंकित का तिलक करती हुई ४.गुजरात से आई गुलाबपाक मिठाई



एक बात तो बताना भूल ही गया। इन दो-तीन दिनों में जो सुस्वादु भोजन मिला वो कहीं न कहीं "रसो वै सः" की अनुभूति करा रहा था। सोच रहा हूं अगली बार सिर्फ़ खाना खाने के लिये सीहोर जाऊं।

चलते-चलते एक मजेदार घटना हुई। सीहोर से भोपाल तक वापसी के तकरीबन घंटे भर के सफर में हम चारों बातें करते हुये आ रहे थे। बातें क्या थीं, शेरों शायरी का दौर चल रहा था। मैंने भी एक मतला और एक शेर पढ़ा-

बस करो और सितम अब मेरे यारा न करो
घर की छत से यूं सरेशाम इशारा न करो

चांद इन शोख घटाओं में छिपा जाता है

चांदनी रात में जुल्फ़ों को संवारा न करो

टैक्सी चालक "रफ़ीक" ने टैक्सी की स्पीड धीमी की, डायरी और पेन निकाला और कहा- साब जी ये शेर मुझे लिखकर दे दीजिये। मुझे बहुत पसंद आया। मैं बहुत जगह टैक्सी लेकर आया गया हूं लेकिन पहली बार इतना मजा आया है। मुझे थोड़ी झिझक हो रही थी क्योंकि गज़ल अभी कच्ची है (पता नहीं "यारा" गज़ल का शब्द है भी या नहीं) फिर कुछ सोचकर मैंने लिख दिया।

Friday, March 19, 2010

पागल मन को संकल्पों से करता कितनी बार नियंत्रित....

इधर कुछ व्यस्त हूं, तब तक एक पुराना गीत पढ़िये और अपनी राय बताइये-

पागल मन को संकल्पों से करता कितनी बार नियंत्रित
जबकि तुम्हारी एक झलक ही मुझको फिर आतुर कर जाती

बैठ झील के कभी किनारे
छेड़
दिया जो वीणा का स्वर
विश्वामित्र
तपस्या भूले
भूल गये सब योग मछेंदर

चितवन के शर से बिंध-बिंध कर संन्यासी गृहस्थ हुए जब
साधारण फिर मनुज मात्र की कोई इच्छा क्या कर पाती

लौटा पनघट से निराश हो
जब
हर कोशिश करनेवाला
एक
बूंद से जाने कैसे
तुमने पूरा घट भर डाला

मैं एकाकी मरणशील था मृदुल-स्पर्श से पहले-पहले
नेह तुम्हारा साथ न देता तो बुझ जाती जीवन-बाती

Thursday, March 11, 2010

तुझे मुहब्बत बुला रहा हूं....

मित्रों, नमस्कार! बहुत दिनों बाद कोई पोस्ट लिखने बैठा हूं। लीजिये आज पढ़िये एक गीत और बतायें कैसा लगा ? आप चाहें तो मेरी बेसुरी आवाज में भी सुन सकते हैं-



उदास राहों में गा रहा हूं
तुझे मुहब्बत बुला रहा हूं

सुनो अंधेरे के हमनवाओं

मैं एक दीपक जला रहा हूं


वो तोड़ने को कमाल जाने
नहीं दिलों का मलाल जाने

उसे खबर क्या कि दर्द क्या है

जो चोट खाये तो हाल जाने


वो रस्मे नफ़रत निभा रहा है
मैं रस्मे उल्फ़त निभा रहा हूं


भला करूं मैं ये काम कैसे
कि नीम को कह दूं आम कैसे

लगा रहें हैं जो आग घर में

करूं उन्हे मैं सलाम कैसे


वो सच से नज़रें बचा रहे हैं
मैं उनको दरपन दिखा रहा हूं


वो रोयें मेरी भी आंखें नम हों
हमारे गम भी अब उनके गम हों

जो हाथ इक दूसरे का थामें

तो दूरियां भी दिलों की कम हों


कदम बढ़ाएंगे वो भी आगे
कदम अगर मैं बढ़ा रहा हूं

Monday, March 1, 2010

होली में तू चूक न मौका दो घूंट भंग चढ़ाता जा

सभी मित्रों को होली की शुभकामनायें। ब्लाग-जगत में भी पिछले कुछ दिनों से होली की धूम है। गुरूदेव ने तो अपने ब्लाग पर क्या ही जबरदस्त आयोजन कर रखा है, आप भी देखें। वैसे तो गुरूजी का आदेश था कि अपने ब्लाग पर होली मुशायरे वाली हज़ल लगाकर होली मनाई जाये मगर वो क्या कहते हैं न कि कवि को रिपीटिशन से बचना चाहिये इसलिये उनसे क्षमा मांगते हुये एक ताजी रचना आपके सामने रखता हूं। दिमाग का प्रयोग होली के आनंद में बाधक है अतः, आप उसे दूर ही रखें

हुआ यूं कि कल मैं भोले बाबा के मंदिर गया और ज्योंहि "कर्पूरगौरं करुणावतारं...." पढ़ना शुरू किया कि भगवान शिव प्रकट हो गये। उन्होंने कहा-वरं ब्रूहि! वर मांगो वत्स! मैंने कहा आपके दर्शन हो गये और क्या चाहिये, प्रभो! उन्होंने कहा-नहीं, मेरे यहां से कोई खाली हाथ नहीं जाता। तुम कुछ नहीं मांगते तो मैं खुद ही तुम्हे गुरूमंत्र देता हूं। इस पर अमल करोगे तो सफलता सुनिश्चित है-



(चित्र-गूगल से साभार)

भक्त यहां तक आया है जब तो प्रसाद भी पाता जा
होली में तू चूक न मौका दो घूंट भंग चढ़ाता जा


पीकर इसको गर्दभ-स्वर में फिल्मी गीत सुनाना पट्ठे
गफ़लत में सोती जनता को नानी याद दिलाना पट्ठे
लूट-पाट, चोरी, मक्कारी इन सबमें पारंगत हो
मिले नरक का ठेका तुझको ऐसी तेरी संगत हो

कलियुग के इज्जत की पगड़ी अब है तेरे हाथों में
अपने कुत्सित कर्मों से तू इसकी लाज बचाता जा


घर में जूते लाख पड़ें पर वीर नहीं घबराया कर
कलह करें पत्नी श्री जब तो धीरज रख, समझाया कर
सती उमा से सीखें कुछ वो उनको ऐसी शीक्षा दे
भंग घोंटकर तुझे पिलायें उनको ऐसी दीक्षा दे

पूर्ण-योग से लगा रहे तो शीघ्र सफल हो जायेगा
यही तंत्र है, यही मंत्र है, इसकी धुनी रमाता जा

Wednesday, January 27, 2010

दर्द बेचने निकले हैं श्री पंकज सुबीर, कौन है जो मोल लेगा ? और सुनिये एक गज़ल-सजायें दी है मुझे उसने मुस्कुराने पर

मित्रों, आज की महफ़िल में आपका स्वागत है। आज विशेष तौर आपके लिये गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी के स्वर में उन्ही का गीत "दर्द बेचता हूं मैं" । और साथ में सुनिये मेरी एक गज़ल जिसे उदारतापूर्वक गुरूदेव ने अपनी आवाज दी है।दर्द के इस गीत के लिये दादा गोपालदास नीरज जी की ये पंक्तियां सुनिये, माहौल बनाने के लिये-

इसीलिये तो नगर-नगर बदनाम हो गये मेरे आंसू
मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था


जिनका दुख लिखने की खातिर
मिली इतिहासों को स्याही

कानूनों को नाखुश करके

मैंने उनकी भरी गवाही

जले
उमर भर लेकिन जिनकी

अर्थी उठी अंधेरे में ही

खुशियों की नौकरी छोड़कर

मैं
उनका बन गया सिपाही


पद-लोभी आलोचक कैसे करता दर्द पुरस्कृत मेरा
मैंने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी, श्रृंगार नहीं
था
इसीलिये तो नगर-नगर.................................

तो जोरदार तालियों से स्वागत कीजिये श्री पंकज सुबीर जी का-




देखते हैं कौन है मशीन होते जा रहे इंसानों की बस्ती में जो ये दर्द मोल लेता है! फ़िलहाल तो मैं खड़े होकर तालियां बजा रहा हूं। और लीजिये अब पेश है मेरी एक गज़ल जिसे गुरूदेव ने न सिर्फ़ संवारा है बल्कि अपनी आवाज भी दी है (इंतज़ार का फल तो मीठा होता ही है ना!)।



खुशी के दीप जलाये थे जिसके आने पर
सजायें दी है मुझे उसने मुस्कुराने पर


ये कैसा शहर है, कैसे हैं कद्रदां यारों
कटे हैं हाथ यहां तो हुनर दिखाने पर


तबीयत उनकी तो सांपों से मिलती-जुलती है
हैं बैठे मार के कुंडली तभी ख़जाने पर


मिली है क़ैद अगर अम्‍न की जो की बातें
इनाम बांटे गये बस्तियां जलाने पर


हरेक बात पे सच बोलने का फ़ल है ये
है आजकल मिरा घर तीरों के निशाने पर


अदू के हाथ में खंजर भी हो ये मुमकिन है
भरम न पालिये हंसकर गले लगाने पर


बस एक खेल समझते थे वो मुहब्‍बत को
लगी वो चोट के होश आ गये ठिकाने पर


मैं चुप हूं तो न समझिये कि हाल अच्छा है
जिगर
फटेगा जो हम आ गये सुनाने पर


कोई बताये कि हम इस अदा को क्या समझें
वो और रूठते जाते "रवी" मनाने पर


अब मुझे इजाजत दें और बतायें प्रस्तुति कैसी लगी ?

Tuesday, January 26, 2010

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाओं के साथ जानिये अपने भारत को इस गीत के माध्यम से

सभी देशवासियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें। इस अवसर पर सुनिये एक पुराना गीत जिसे फ़िर से स्वर दिया है लोकगायक मनोज तिवारी ने। गीत बटोही (राहगीर) को संबोधित है और शब्द आसानी से समझ में आने योग्य हैं। अपनी राय से जरूर अवगत करायें।

Wednesday, January 20, 2010

वसंत पंचमी पर नमन मां शारदे को एक तोटक के साथ

आप सबको वसंत पंचमी की अशेष शुभकामनायें। वसंत पंचमी मेरे लिये इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मैंने विद्यारंभ इसी दिन से प्रारंभ किया था। मां के चरणों में एक तोटक रखता हूं। तोटक ठीक से पढा जाये तो अत्यंत कर्णप्रिय होता है। और आपको पता ही होगा कि तोटकाचार्य का तो नाम ही उनके प्रसिद्ध तोटक के आधार पर हुआ था, जिसने आचार्य शंकर को काफ़ी प्रभावित किया था। तोटक से परिचित होने के लिये नीचे के वीडियो में "जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे ॥" को सुनें-



या फिर लता जी के स्वर में " जय राम रमा रमनं शमनं" सुनें-

।youtube.com/v/ppi6u8VwFC0&hl=en_US&fs=1&">

तो मित्रों, ये तो रही तोटक की बात। आइये अब इस तोटक को पढ़िये और बताइये मेरी कोशिश कैसी रही-

जग का सुख-वैभव-सार नहीं
अथवा धन-राशि अपार नहीं

मत दो यश का वरदान मुझे

जननी! मत दो पद, मान मुझे


इतनी बस मातु कृपा करना
मन के सब पाप सदा हरना

मुख में शुभ-शब्द निवास करे

उर में नित ज्ञान प्रकाश करे


परकारज प्राण भले निकले
पग सत्पथ से न कभी विचले

हिय में निज भक्ति-सुधा भर दो

अयि देवि! मुझे इतना वर दो