Monday, June 22, 2009

जगमग दीपों के उत्सव-सा उस दिन से है जीवन सारा

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कंटक-पथ से मुझे उठाकर तुमने गले लगाया जब से
चंदन की भीनी खुश्बू से भींग गया है तन-मन सारा

याद-सरस्वती का आना तो
उर में अपने-आप हुआ था
नयनों में थीं गंगा, यमुना
मिलन-मंत्र का जाप हुआ था
मन प्रयाग बन बैठा पावन
संधि-काल की उस बेला में
लगा डूबकी संगम में फ़िर

शमित हृदय का ताप हुआ था

शुभारंभ हो गया निमिष में तमस से ज्योति की यात्रा का
जगमग दीपों के उत्सव-सा उस दिन से है जीवन सारा

तुम बिन जीवन ऐसे, जैसे
व्यंजन के आगे हलंत है
भटकन कितनी ये मत पूछो
इच्छाओं का नहीं अंत है
रस का कोई स्रोत नहीं था
पतझड़ आंखें दिखा रहा था
अमर-दान तुमने दे डाला
हर मौसम लगता बसंत है

छाई है लाली यौवन की अधरों पर हर एक कली के
पावन संग तुम्हारा पाकर महक उठा है उपवन सारा

Thursday, June 18, 2009

नींद न टूटे जब राजा की आहों से, कोलाहल से, व्याकुल होकर जनता तब महलों में आग लगाती है

(चित्र गूगल से साभार)


गुरूदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से तैयार एक गज़ल पेश है। पढ़ें और बतायें-

इक तो टूटा छप्पर तिस पर मौसम भी बरसाती है
प्यास बुझानेवाली बदली अब तो दिल दहलाती है

याद तुम्हारी चिड़िया जैसी दिल मेरा है नीड़ हुआ
सारा दिन गायब रहती पर शाम ढले आ जाती है

पिघला ना पाओगे इनको जितना जप, तप होम करो
देव सभी हैं पत्थर के, पत्थर की इनकी छाती है

नींद न टूटे जब राजा की आहों से, कोलाहल से
व्याकुल होकर जनता तब महलों में आग लगाती है

धन दौलत चाहे मत देना, देना संस्‍कार उनको
बच्चों की खातिर पुरखों की ये ही असली थाती है

Tuesday, June 16, 2009

मैं पूजा की थाली, का एक फूल हूं...

(फोटो गूगल से साभार)

श्वास की हर ऋचा है, समर्पित तुम्हे
अब कहां शेष रहती, कोई साधना
रूप-जल से नहाकर, नयन तृप्त हैं
हो गई आज पूरी, हर इक कामना

याद दीपक बनी जब, डंसा रात ने
विष से मुक्ति दिलाई, सुमधुर बात ने
छू दिया तुमने और, मैं सोना हुआ
कि मान मेरा बढ़ाया, तेरे हाथ ने

हैं अयाचित सभी सुख, जब मुझको मिले
फ़िर नहीं अब जरूरी, कोई याचना

रात और दिन तुमको, मैं निरखा करूं
ये भी सौभाग्य जो, चरणों में मरूं
तुम पर तन मन औ धन, निछावर है सब
तुम्हारे सिवा कहो, अब किसको वरूं

मैं पूजा की थाली, का एक फूल हूं
पास तुम्हारे रहूं, इतनी प्रार्थना

Saturday, June 6, 2009

राधा और कृष्ण के प्रश्नोत्तर में छिपी प्रेम की एक अनूठी दास्तान

जब-जब प्रेम की बात चलती है कुछ नाम जेहन में अनायास आ जाते हैं। जैसे लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, ढोला-मारू आदि। यह भी सच है कि प्रेम की ऐसी भी मिशालें रही हैं जो अपेक्षाकृत कम चर्चित रही हैं-जैसे ऊषा और अनिरुद्ध का प्यार। ऊषा, वाणासुर की लड़की थी और अनिरुद्ध कृष्ण के पौत्र। ऊषा को एक रात सपने में कोई युवक दिखता है और उसकी याद जागने पर भी भूलाये नहीं भूलती। चित्रलेखा, ऊषा की सहेली थी जो संसार के हर पुरूष-स्त्री का चित्र खींचने और उसके बारे में बता पाने की सामर्थ्य रखती थी। फ़िर उसी की मदद से पता चला कि सपने में दिखा युवक अनिरूद्ध है और बात आगे बढ़ी। खैर, ये तो प्रसंगवस थोड़ी बातें कह गया। मूलतः आज आपको एक और ऐसी ही कहानी से परिचित कत्रवाता हूं जो है तो कम चर्चित पर प्रेम की अनूठी मिशाल है। दरअसल मेरे लिये ये सप्ताह अत्यंत व्यस्तता भरा रहा। ऐसे ही मुश्किल क्षण में एक लोकगीत की दो-चार पंक्तियां (पूरी तो याद भी नहीं) अचानक कौंध गई और एक मीठे एहसास से मन भर गया। इस पोस्ट का जन्म इस गीत में छिपे दास्तान से ही हुआ है जो राधा और कृष्ण के प्रश्नोत्तर में निहित है। ये गीत कभी पूरा मिल सका तो सुनवाऊंगा फ़िलहाल तो कहानी का आनंद लीजिये। ऐसा हुआ कि एकबार राधा के मन में संशय हुआ कि कृष्ण बांस की बांसुरी क्यों बजाते हैं? उन्होने कहा कृष्ण से कि आप तो सक्षम हैं, सामर्थ्यवान हैं, अपने लिये सोने की बंशी क्यों नहीं बनवा लेते? ये क्या गरीबों की तरह बांस की बांसुरी.......और फ़िर कृष्ण ने जो उत्तर दिया वह सदियों-सदियों तक सहेजकर रखे जाने योग्य है। हमारे यहां एक जाति होती है-डोम। एक दलित जाति है जहां पुरुउष डोम कहलाते हैं और औरतें डोमिन (राजा हरिश्चंद्र डोम के घर ही बिके थे)। बांस का डाला बनाना, मुर्दे को आग देना जैसे काम डोम ही करते हैं। किसी समय में एक डोमिन कृष्ण से प्रेम कर बैठती है। कहां एक राजा और कहां एक डोमिन! पर प्रेम तो एक बेबूझ पहेली है। यहां वो सब घटित होता है जो समझ और उम्मीद से परे हो। आज तक कौन जान सका है इसे। किसी ने कहा है-

वल्लाह रे ये हुस्न की पर्दागिरी तो देखिये
भेद जिसने खोलना चाहा वो दीवाना हुआ

तो आखिर भेद खुल नहीं पाया। प्रेम के मामले में भी ये सौ फ़ीसदी सत्य है। खैर, तमाम विसंगतियों के बावजूद कृष्ण ने इस प्रेम को स्वीकार किया। और जैसा की हर अमर-प्रेम में होता है, दोनों मिल नहीं पाये। कारण चाहे जो भी रहा हो.....और कृष्ण ने बांस की बांसुरी को हमेंशा के लिये होठों से लगा लिया....कृष्ण बोलते रहे, राधा सुनती रहीं....कई बार सोचता हूं क्या आज कोइ प्रेमी अपनी प्रेमिका के समक्ष खुले मन से किसी और से प्रेम की बात कर पायेगा? और करे भी तो क्या प्रेमिका सहज भाव से स्वीकार कर पायेगी?