Monday, December 28, 2009

मुझको याद तुम्हारी आती

मित्रों, नमस्कार!
करीब महीने भर बाद वापस आया हूं और संयोग ऐसा है कि एक ओर इस साल को विदाई देनी है तो दूसरी ओर नये का स्वागत भी करना है। इस अवसर पर एक गीत पढ़ें और अपनी राय से अवगत करायें-



ये तो हुई पुराने की विदाई और नये के स्वागत की बात पर अगर पूरे वर्ष को देखूं तो मेरे लिये हर्ष और विषाद दोनों से भरा रहा। और कई बार तो ऐसा हुआ कि दोनों इकट्ठे एक ही क्षण में आये और सही मायने में कहूं तो मुझे किंकर्त्तव्यविमूढ़ करने में कोई कसर न छोड़ा। हां, इस सफ़र में गुरूजनों और प्रियजनों का साथ जरूर संबल देता रहा, हर मोड़ पर। अगर हिंदी की बात करूं तो यथाशक्ति जो मुझसे हो सकता था, प्रयत्न किया, जैसे-



ऐसी कुछ और चीजें भी शामिल रहीं, उनके बारे में फ़िर कभी बात करूंगा। फ़िलहाल मुझे आज्ञा दीजिये, नये साल में गज़ल के साथ फ़िर मिलता हूं।

नोट: सरसों वाली फोटो http:/यहां से और पीपल वाली यहां से ली गई है तथा संबंधित लोगों को सूचित भी कर दिया है। आपत्ति की स्थिति में हटा ली जायेगी।

Monday, November 30, 2009

वो नन्ही कली एक आई है जबसे......

मित्रों नमस्कार। पिछले २१ नवंबर, शनिवार की रात्रि में कुदरत ने हमें ऐसी खुशी से नवाजा कि घर-आंगन सदा-सदा के लिये हरा-भरा हो गया। जैसा कि आपको गुरू जी की पोस्ट से पता चल ही गया होगा हमारे घर स्वयं आदिशक्ति पधारी हैं। जल्द ही फोटो लगाता हूं, तब तक इस नन्ही परी के स्वागत में एक कविता, आपकी दुआओं और आशीर्वाद का इंतज़ार रहेगा-


वो नन्ही कली एक आई है जबसे
महकने लगा है चमन धीरे-धीरे
भंवर गुनगुनाते, हवा नाचती है
हुये सब खुशी में मगन धीरे-धीरे

हर इक बात उसकी तो जादू भरी है
उतर आई धरती पे कोई परी है

जमीं उसकी आहट पे खुशियां बिछाती

कदम चूमता है गगन धीरे-धीरे


वो खुद है रुबाई, वो खुद ही गज़ल है
सरोवर में खिलता हुआ इक कंवल है
उसे चांदनी रोज लोरी सुनाती
है झूला झुलाती पवन धीरे धीरे

सिखायेगी सबको नये गीत गाना
चलेगा उसीके ये पीछे जमाना

वो इक दिन सितारों से ऊपर उठेगी

ये मन में लगी है लगन धीरे-धीरे

Friday, November 20, 2009

रोते को हंसा दो तो कोई बात है साहिब, हंसते को रुला देना बड़ी बात नहीं है

मित्रों नमस्कार! आज आपको एक गज़ल पढ़वाता हूं। गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी ने इसे संवारकर कहने लायक बनाया है। पढ़िये और कैसी लगी, बताइये-

मर-मिटने का गर जंग में जज्बात नहीं है
कदमों
में तिरे जीत की सौगात नहीं है

रोते को हंसा दो तो कोई बात है साहिब
हंसते को रुला देना बड़ी बात नहीं है


काश! हकीकत में भी होती वो जमीं पर
कागज़ पे सड़क होना करामात नहीं है


हिन्दू न मुसलमान नहीं सिक्ख इसाई
आदम के सिवा और मिरी जात नहीं है


उतरेगा किसी रोज तो दौलत का नशा भी
होगी न सहर ऐसी कोई रात नहीं है


आराम से भर पेट जिसे चल दिए खाकर
जीवन कोई थाली में रखा भात नहीं है


दो-चार फ़ुहारों से नहीं बात बनेगी
ना प्‍यास बुझाए जो वो बरसात नहीं है


कशमीर से गुजरात तलक हाल वही है
किस शहर में आतंक का उत्पात नहीं है


Tuesday, November 17, 2009

गीत न लिखता तो क्या करता

मित्रों, फ़िर से हाज़िर हूं आपकी खिदमत में। पढ़िये इस गीत को और अपनी राय से अवगत कराईये-

एक तुम्हारा, मधुर हास है, दूजे ये मधुमास पुनीते!

तीजे ठहरी, रात चांदनी, गीत न लिखता, तो क्या करता


झरें अधर से, बोल प्रेम के
जब मदमाती, पुरवाई में

ऐसा लगता, कूक रही हो
जैसे कोयल, अमराई में

सजा गया है, चांद रूप को
और सुना है स्‍वयं रात ने,

पहनाया झिलमिल तारों का
कंगन फिर आज कलाई में


मुझको फ़िर कर गया पराजित, प्रिये! तुम्हारा हृदय-समर्पण
सुर-दुर्लभ इस प्रणय-हार को, जीत न लिखता तो क्या करता


शुभे! हंसिनी, बन तुम आई
विश्व सकल ये, मानसरोवर

बना
सीप से, मोती पहले
चुन लो मुझको, फ़िर तुम आकर

विदित मुझे ये, कठिन बहुत है
कुछ भी कहना, लेकिन फ़िर भी
,
सोच रहा मैं, अवश-अकिंचन
उपमाएं क्या वारूं तुम पर


खोज थका मैं, मिला न मुझको, अपर शब्द कोई भी सुंदर
तुम्हे सुहावन, प्रिय मनभावन, मीत न लिखता, तो क्या करता

Monday, November 9, 2009

जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये....

मित्रों, आज ये मेरी पचासवीं पोस्ट हाजिर है। कच्छप-गति से चलते-चलते आपके दुआओं के सहारे यहां तक आ पहुंचा हूं। इसी कड़ी में आज पढ़िये ये गज़ल जो आदरणीय प्राण शर्मा जी के सुझावों और आशीर्वाद के बाद कहने लायक बन पाई है-

कुछ बिक गये, कुछ एक जमाने से डर गये
जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये


हमने तमाम उम्र फ़रिश्ता कहा जिन्हे
ख्वाबों के पंछियों की वो पांखें कुतर गये


कुर्सी के दांव-पेंच का आलम ये देखिये
जिस ओर की हवा थी, महाशय उधर गये


सच उनके घर गुनाह में शामिल है इसलिये

जब भी गये हैं लेके हथेली पे सर गये


मेरी तो कोई बात भी उनसे छुपी नहीं
हैरत से देखते हैं जो देने खबर गये


दुनिया की हर बुराई थी जिनमें भरी हुई
सत्ता के शुद्ध-जल से वो पापी भी तर गये


मेरे अजीज मुझसे सरेराह जो मिले
मुंह फ़ेरकर जनाब मजे से गुज़र गये

Tuesday, November 3, 2009

बोलो जय सियाराम....

मित्रों, आज प्रस्तुत करता हूं-सीधे-सादे शब्दों में एक रचना। बात आप तक पहूंचे तो टिप्पणियों से सूचित करें-

डोली लूट गये खुद कहार, बोलो जय सियाराम
भारतमाता भई लाचार, बोलो जय सियाराम


विद्यालय से कालेजों तक, करता कौन पढ़ाई
डिग्री की चिंता क्या करनी, ये कलियुग है भाई

सब है बिकता खुले बाजार, बोलो जय सियाराम

ले लो रूपये के दो-चार, बोलो जय सियाराम


मन की कोई पूछ नहीं है, तन का ऊंचा आसन
जितने कम जो कपड़े पहने, उतना सुंदर फ़ैशन

रूप की महिमा अपरंपार, बोलो जय सियाराम

इशारों पर नाचे संसार, बोलो जय सियाराम


बस कागज़ पर दिखता है जो, वो विकास है कैसा
बिजली, सड़क और पानी का, था जितना भी पैसा

मंत्री, अफ़सर गये डकार, बोलो जय सियाराम

कि कितनी अच्छी है सरकार, बोलो जय सियाराम


जीत गये तो भूल गये वो, सभी चुनावी वादे
बदल गये गिरगिट-सा देखो, जो थे सीधे-सादे

हुआ जनता का बंटाधार, बोलो जय सियाराम
बड़े लोगों का बेड़ा पार, बोलो जय सियाराम


कहां और किस ओर गया है, आज ये भारतवर्ष
चार्वाक का दर्शन बन गया, एकमात्र आदर्श

घी पीते हैं लेकर उधार, बोलो जय सियाराम

वो यू पी हो या हो बिहार, बोलो जय सियाराम

Friday, October 30, 2009

आंसुओं में डूबकर उस पार जाना चाहता हूं.....

बहुत दिनों बाद आप सबसे मुखातिब हूं इसलिये बहुत सारी बातें भी हैं सुनाने को-कुछ, जो हुआ और कुछ, जो इस होने का अर्थ निकलता है। २० अक्तूबर के लगभग फ़ुरसतिया जी का फोन आया कि इलाहाबाद में ब्लागरों का सम्मेलन है। हमने क्षमा सहित निवेदन कर दिया कि उन्ही दिनों हमारे यहां भी उत्सव होनेवाला है और उत्सव भी क्या ऐसा समझें कि पूरा-पूरा देवराज इंद्र का दरबार सजनेवाला है। जब कस्तूरी अपने घर ही हो तो उसे खोजने इलाहाबाद क्या जायें, असल कुंभ तो यहां लगनेवाला है। जल्द ही सुरबालाओं के कदम से ये तपोवन झंकृत हो उठा। आज अगर बाबा तुलसीदास होते तो गा रहे होते-

वन बाग उपवन वाटिका सर कूप वापी सोहहिं
नर नाग सुर गंधर्व-कन्या रूप मुनि मन मोहहिं


तो इस तरह से शुरू हुआ चार दिनों तक चलनेवाला हमारा वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम। पूरे कार्यक्रम के विस्तृत विवरण में तो मेरी खास दिलचस्पी नहीं है। हां, कुछ बातें जरूर साझा करने लायक हैं। सबसे पहले तो ये कि एक अपराध मुझसे होते-होते बचा या कहें कि परमात्मा ने बचा लिया। किसी विशेष कार्यक्रम में एक खास आत्मीय जन को बुलाने की प्रबल इच्छा थी पर किसी कारण से संभव न हो पाया। मन में एक पीड़ा का भाव था लेकिन कार्य्क्रम समापन के बाद मैंने ईश्वर का धन्यवाद दिया कि तू जो करता है ठीक ही करता है। मन में कई प्रश्न भी उठे -क्या कविता के लिये विषय का इतना अभाव हो गया है कि कवियों को अपनी समस्त प्रतिभा ये बताने में नष्ट करनी पड़े कि किसी अभिनेत्री ने विदेशी को चुंबन देकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है। और बताने का ढंग भी ऐसा कि साफ समझ आता है कि उन्हे भारतीय संस्कृति से तो क्या लेना देना ? असल पीड़ा तो ये है कि इस उपहार से वे क्यों वंचित रह गय? उनका दर्द कि हम भारतीय क्या मर गये थे? अब चूंकि ये दर्द तो कई भारतीयों का है इसलिये तालियां तो खूब मिली बस कहीं कविता भर न मिली। ये तो सिर्फ़ एक उदाहरण है, पूरा कार्यक्रम सुनकर तो ऐसा लग रहा था जैसे कवि-सम्मेलन न होकर कोई घटिया कामेडी सिनेमा चल रहा हो। खैर मैं निंदा-रस का रसिक नहीं हूं इसलिये इस अध्याय को यहीं बंद करते हैं और मिलते हैं दो प्रतिभाओं से जिनमें काव्य का बीज अंकुर फोड़ रहा है। एक तो अमित जी हैं जिनके बारे में पहले भी बताया है आपको और दूसरे हैं भारत भूषण। अभी-अभी अमित ने किसी कारवाले को फूल बेचने की कोशिश करते बच्चे को लक्ष्य कर लिखा है-

मेरा क्या बाबूजी मैं तो बस सड़क का शोर हूं
आप
ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं


कल बड़ा हो जाऊंगा तो शक करेंगे आप भी

आज बच्चा ही समझकर रात की रोटी खिलाएं


बेचता सड़कों पर बचपन कुछ व्यथित संवेदनाएं


जहां तक भारत-भूषण की बात है, ये बंधु इतना सुंदर गाते हैं कि आप प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकते। पिछले दिनों इन्होने अपना ताजा गीत सुनाया-

वह शून्य जिससे सृष्टि आती
मैं
भी पाना चाहता हूं

आंसुओं में डूबकर

उस पार जाना चाहता हूं


इनसे मिलकर बस एक ही काम किया जा सकता था जो मैंने कर दिया। शीघ्र ही दोनों गुरूकुल में दाखिले की अर्जी देने वाले हैं। इनके बारे में बाकी बातें बाद में।

Saturday, October 17, 2009

मुझसे कहते वही कहानी, शुभदे ! चंचल नयन तुम्हारे

आप सबको दीपावली की शुभकामनाएं। जीवन के समस्त अंधियारे दूर हों इस मंगलकामना के साथ। चलते-चलते एक छोटा गीत, बतायें कैसा बना है ?

अमर-कथा जो कभी सुनाई शिव ने चुपके उमा-कान में
मुझसे कहते वही कहानी, शुभदे ! चंचल नयन तुम्हारे

रोम-रोम आभारी मेरा तुमने इतना प्यार किया है
दुविधाओं के महाजाल में नीर-क्षीर व्यवहार किया है
तुमको परिभाषित क्या करता ! सभी विशेषण छोटे निकले
पकड़ तर्जनी तेरी मैंने हर दुर्गम पथ पार किया है

मुखर हुई हो जैसे प्रमुदित देवालय की कोई प्रतिमा
वेद-मंत्र से पावन लगते, प्रियंवदे ! ये वचन तुम्हारे

निशिदिन मन की टेर यही है जैसे भी हो प्रिय तुम आओ
तृषित अधर अतिविकल आज हैं आकर सुधा धार बरसाओ
सौंप दिया सब कुछ तुम पर मुझपर मेरा अधिकार कहां है
मैं तो एक बांसुरी जैसा जो चाहो सो गीत बजाओ

खोल हृदय की बंद किवाड़ें, नेह-द्रव्य से भर दो झोली
याचक बनकर आया हूं मैं, प्राणवल्लभे ! भवन तुम्हारे

Saturday, October 10, 2009

जन्मदिन मुबारक हो

११ अक्टूबर १९७५ का दिन है। हवा में चंदन की खुश्बू है, उपवन में फूल झूम रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे पूरी प्रकृतिउत्सव मना रही हो। अभी-अभी एक बालक का जन्म हुआ है। घर में सभी आनंदित हैं, बधाईयों का तांता लगा है।आंगन से सोहर की आवाज आती है (साभार: पिया के गांव) -





इतिहास चुपके से इस क्षण को चिन्हित कर लेता है। बालक धीरे-धीरे बड़ा होता है। किशोरावस्था गई है।किशोर की अभिरूचियां देखकर लगता है जैसे इस तरूण से सरस्वती को कुछ अभीष्ट है। गीत, गज़लों से ऐसालगाव हो गया है मानो गज़ल ही खाना, ओढ़ना, बिछाना जीवन का लक्ष्य हो-


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ग्यारवीं कक्षा में पंहुच चुके इस होनहार युवक को शायरी का कीड़ा काटता है। दिल के मचलते अरमान कागज़ परउतरने लगते हैं। एक असहाय
पेड़ का दर्द -

एक पेड़ बेचारा पेड़, बारिश में भीगता पेड़, गर्मी में सूखता पेड़

इस नौजवान के हृदय में तीर की तरह चुभता है और वहीं से काव्य-यात्रा शुरू होती है। इतिहास फ़िर से इस क्षण कोचिन्हित कर लेता है। मुहब्बत के शेरों ने डायरी के पन्ने भरने शुरू कर दिये हैं। दुश्मन ज़माने की नज़र पड़ती हैऔर सुनने में आता है कि लड़का राह भटक गया है। संदेह है कि किसी मेनका ने इस विश्वामित्र की तपस्या भंग करदी है। अरे यह क्या!! इश्क सर पर हाथ रखे रो रहा है, गज़ल एक कोने में उदास बैठी है। कुटिल आक्षेपों से विकलहोकर खुद ही डायरी को आग लगा दी है और दिनकर जी की पंक्तियां गुनगुना रहा है-

सीखी जगती ने जलन प्रेम पर
जब से बलि होना सीखा
फूलों ने बाहर हंसी और
भीतर-भीतर रोना सीखा

लेकिन कब तक? कहते हैं कला दबाने से और निखरती है।

बंधनों से होकर भयभीत
किन्तु
क्या
हार सका अनुराग ?
मानकर
किस बंधन का दर्प

छोड़ सकती ज्वाला को आग?

शीघ्र ही
देह की देहरी नाम से दूसरी कामायनी अस्तित्व में आती है। पूरी पचास गज़लों के साथपुरूष के अंतरंग संबंधों को आधार बना कर लिखी हैं। ये कच्चे और भावुक कवि मन की अभिव्यक्तियां हैं शायद बीस या इक्कीस साल के युवा मन की -


जिस्म को यूं ही गुनगुनाने दो

मुझको खुद में ही पिघल जाने दो

******************************

जलते हुए गुलमोहर की ठंडी सी छांहें देखीं थीं

साथ किसी के हमने भी तो चांद सी बांहे देखीं थी


शायरी का सफ़र जारी है। स्त्री-पुरूष संबंधों का रहस्य, रोमांच, उलझन लेखनी के विषय बनते हैं और खंड-काव्य तुम्हारे लिये का जन्म होता है।

सौ छंदों में स्त्री पुरुष की प्रणयक्रिया को प्रतीकों के माध्यम सेउकेरने का प्रयास उसी बीसइक्कीस की उम्र में विषय एककिशोर के ‍‍ ‍ प्रथम प्रणय के अनुभव

महाप्रणय के महाग्रंथ का लेखाकरण प्रगति पर था तब

मसी नहीं थी, क़लम नहीं थी किन्‍तु कार्य उन्‍नति पर था तब

तरल हो गईं दो कायाएं मिलकर बनने एक रसायन


कल्पित प्रारूपों पर मानो इच्छित सा निर्माण हुआ था

बोधि वृक्ष की छाया ने फिर योगी को निर्वाण दिया था

सब कुछ विस्‍मृत था, स्‍मृत था केवल प्रणय कर्म निर्वाहन


जगा रहा शमशान निशा में, शव साधक कोई अघोर था

भांति भांति के स्‍वर होते थे, महानिशा का नहीं छोर था

तंत्र, मंत्र और यंत्र सम्मिलित सभी क्रियाएं बड़ी विलक्षण


क्षरण हो रहा था जीवन का बिंदु बिंदु तब उस अनंत में

काल गति स्‍तब्‍ध खड़ी थी सिर्फ मौन था दिग्‍दिगंत में


इस बीच समय का पहिया घूमता है, कैलेंडर के हिसाब से दिसंबर २००० का समय है। इतिहास फ़िर से अपनीडायरी में कुछ लिखता है। शहनाइयां बज रही हैं। कोई कवि डोली में बैठे दुल्हन के मनोभावों को पढ़ने की कोशिशकर रहा है-

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समय आगे बढ़ता है। कठोर साधना ने सरस्वती को प्रसन्न कर दिया है। सरस्वती परी और पंखुड़ी नाम से दोवरदान देती हैं इस समर्पित साधक को। अब लेखनी सिर्फ़ कविताओं/गज़लों तक सीमित नहीं रहना चाहती। नदी, तटबंधों को पार कर आगे बढ़ गई है। लेखक के व्यंग्य लेख चाव से पढ़े जाने लगे हैं। कहानियां पहचान देने लगी हैं। ईस्ट-इंडिया कंपनी के माध्यम से ज्ञानपीठ भी लेखक की प्रतिभा का लोहा मान लेती है। इतिहास कलम उठाताहै और सभी चिन्हित स्थानों के आगे पंकज सुबीर लिख देता है।





Thursday, October 1, 2009

रोजी-रोटी के चक्कर ने....

सबसे पहले तो क्ष्मा-प्रार्थी हूं, लंबी अनुपस्थिति के लिये। इस बीच यूं तो काफ़ी कुछ हुआ और मर्मांतक पीड़ा हुई गौतम जी के बारे में जानकर। हां उनकी स्थिति में अपडेट जानकर राहत भी हुआ और ऊपरवाले के प्रति श्रद्धा भी। एक अच्छी बात ये भी है कि गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी पुनः सक्रिय हो गये हैं ब्लागजगत में। तो आइये एक गज़ल पढ़ें जो उनके ही हाथों संवारी गई है फ़िर भी कोई त्रुटि रह गई हो तो वो मेरी अपनी है।


बाज लगे चिड़ियों से डरने
फूंका मंतर जादूगर ने

सच से कितना प्यार है उसको
समझाया उसके पत्थर ने


ढूंढ रहे हल ताबीजों में
अक्‍ल गई क्‍या चारा चरने

बाबूजी की उम्र घटा दी

रोजी-रोटी के चक्कर ने

पाप बढ़ा जब हद से ज्‍यादा

तब फूंकी लंका वानर ने

धरती ने जब ज़िद ठानी है
मानी हैं बातें अंबर ने


ज़हर भरा है यमुना-जल में
डेरा डाला फ़िर विषधर ने

बांट दिया है इन्‍सानों को
मंदिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर ने

कौन उठाये अब गोवर्धन

धमकाया फ़िर है इंदर ने

रिश्वत से इंकार किया तो

बरसों लटकाया दफ्तर ने

धर्म बिका जब बाज़ारों में
पीट लिया माथा ईश्वर ने

Monday, September 14, 2009

विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में

आज हिंदी-दिवस है। हिंदी-दिवस की सार्थकता लंबी-चौड़ी बयानबाजी में नहीं है इसलिये बेहतर है हिंदी में कुछ लिख-पढ़कर इसे मनाया जाये। तो आज पेश है ये गीत आपकी सेवा में, जीवन के विरोधाभासों को समेटे हुये। मैं विध्वंस और सृजन दोनों को जरूरी मानता हूं। खेत से खर-पतवारों को तो हटाना ही है लेकिन, बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि, फूलों के बीज भी रोपने हैं। इन्ही दो स्वरों को पिरोने की कोशिश की है-


उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में

एक तरफ मैं बातें करता बरछी, तीर, कटारों की

काली का करवाल, साथ में बहते शोणित-धारों की
क्षार-क्षार करने को आतुर दहक रहे अंगारों की

टूट-टूट कर पल-पल गिरते सत्ता के दीवारों की

दूजे पल मैं राह दिखाता भटक रहे नादानों को
सत्य, अहिंसा और प्रेम की मंजिल मेरे गीतों में

कभी प्रीत की डोर बांधती, तो कभी भौंरा आजाद
कभी काल की कुटिल हास है कभी देवता का प्रसाद
बैठ कुटी में कभी लिखा है साग औ’ रोटी का स्वाद
कभी कलम का साथ निभाती है विविध व्यंजन की याद

है एक ओर विज्ञान-जनित नगरों का वैभव विशाल
वहीं खेत औ’ खलिहानों की मुश्किल मेरे गीतों में

शंखनाद कर स्वप्न तोड़ता बरबस तुम्हे जगाता हूं

नयनों में आंसू भर-भर कर रोता और रुलाता हूं

रास-रंग सब छोड़ प्यास के दारुण गीत सुनाता हूं
पर प्यासे अधरों की खातिर ये भी खेल रचाता हूं

जाम, सुराही, साकीबाला, पीनेवालों की टोली
सजी हुई है पूरी-पूरी महफिल मेरे गीतों में

Wednesday, September 2, 2009

चली हवाएं परिवर्त्तन की....

लीजिये एक और कविता पेश है, बिना किसी खास भूमिका के। उम्मीद है आपको पसंद आयेगी।

नींव डोलती राजभवन की
चली हवाएं परिवर्त्तन की
सहमी छाती नील-गगन की
बेला फिर शिव के नर्त्तन की

यह इंद्रजाल अब टूटेगा
बंधन से मानव छूटेगा
हां, फूल नया खिलने को है
धरती, नभ से मिलने को है


तू गीत क्रांति के गाने दे
जग का सुख-चैन मिटाने दे
फसलों की बात भुलाने दे
खेतों को आग उगाने दे


आंसू का मोल चुकाना है
पिछ्ड़ों को आगे लाना है

देखो यह समय बदलता है
अब सूरज नया निकलता है

सत्ता का जोर न रोकेगा
तोपों का शोर न रोकेगा

बादल घनघोर न रोकेगा
झंझा झकझोर न रोकेगा

यह रथ बढ़ता ही जायेगा
सीढ़ी चढ़ता ही जायेगा
मैं पूजन थाल सजाऊंगा
माथे पर तिलक लगाऊंगा

फिर नित-नूतन मंगल होगा
निश्चित ही सुंदर कल होगा

Wednesday, August 26, 2009

दो छंद पढ़िये आज की हालात पर....

नमस्कार साथियों! आज की हालात पर कुछ कहना चाह रहा था। सोचा एक लंबा लेख लिखूं लेकिन अच्छा लगा कि बात कविता के सहारे आप तक पहुंचाई जाये। तो आइये जुड़ते हैं इस घनाक्षरी दंडक से-

(१)
खेत-खेत फैल गये, खर-पतवार अब
कितना भी काटो पर, फ़िर-फ़िर आते हैं
अपना ठिकाना नहीं, लेकिन दूसरों का वो
भावी और भूत सब, पल में बताते हैं

फ़िरते लगाये घात, गली-गली चौक-चौक
भेड़ की पहन खाल, भेड़िये लुभाते हैं
संक्रमण-काल में हैं, हिंदी कवितायें आज
चुटकुले पढ़ कवि, ताली बजवाते हैं

(२)
कोई आके भर देगा, हीरे-मोती झोलियों में
कबसे भरम में है, जनता खड़ी हुई
कैसा है विकास यह, रोग का इलाज जब

कहीं पे भभूत कहीं, जादू की छड़ी हुई
और हाल ऐसा मेरे, देश के नेताओं का है
गिद्ध की निगाह जैसे, लाश पे गड़ी हुई
होते गर एक-दो तो, बात कोई करता मैं
लगता है कुंए में ही, भांग है पड़ी हुई

Friday, August 21, 2009

प्रेम तो हर पल नया है......

आज इस कविता को पोस्ट करते वक्त ईश्वर से प्रार्थनारत हूं कि आप तक इसका सही भाव ही संप्रेषित हो। बस भूमिका में और कुछ लिखने का मन नहीं है।

सदा वही मैं गीत सुनाऊं, तुमने चाहा है मुझसे
पर ये कहता सत्य सृष्टि का, प्रेम तो हर पल नया है

हर ठौर उसी का वास अगर, एक ठौर फिर बंधना क्या
दोनों भरते हैं जीवन को धूप-छांह से बचना क्या

आग, हवा, पानी पर भाई, जब कोई प्रतिबंध नहीं
लक्ष्मण-रेखा खींच-खींचकर मेरा-मेरा जपना क्या

अलग-अलग हैं रूप-रंग पर गुण तो एक समाहित है

प्यास धरा की मिटे, इष्ट हो, मत कहें बादल नया है

ठहराव निशानी जड़ता की, गति जीवन की परिभाषा

नील गगन के पंछी को पिंजरे से कैसी आशा
किसी कली का किसी भ्रमर से आजीवन संबंध रहे
है ये केवल पागल मन की, रूग्ण, सशंकित अभिलाषा

कल-कल, कल-कल बहते रहना सहज नियम है धारा का
आप न बदलें रोज नाम पर रोज गंगाजल नया है

Saturday, August 15, 2009

बहुत हुई पूजा देवों की, कर दो मूर्त्ति विसर्जन आज...

स्वतंत्रता दिवस मनाने का मेरा अपना ही ढंग है। सच कहूं तो भारत के संबंध में मुझे दिनकर जी की बात याद आती है जो कहते हैं-मानचित्रों में नहीं हृदय में शेष कहीं भारत है। चाहता हूं, प्रेम के गीत लिखूं पर जब अपने भारत को देखता हूं, जब देखता हूं इसके सामाजिक वैषम्य को...तो फिर कलम कुछ और ही लिखने लगती है। इसलिये मेरी रचनाओं में हमेंशा एकस्वर नहीं आ पाता बल्कि उसमें सृजन और विध्वंस दोनों का समावेश है। मेरे एक गीत की दो पंक्तियां हैं-

उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में

खैर पूरा गीत कभी बाद में। अभी तो आपके लिये एक बिल्कुल नई रचना सामने रखता हूं।आल्हा में लिखी गई है। स्वतंत्रतादिवस पर इसके सिवा और क्या दूं आपको-


तुम्हे रूला जो हंसते, उनको, करना होगा क्रंदन आज
बहुत हुई पूजा देवों की, कर दो मूर्त्ति विसर्जन आज

भीख नहीं स्वीकार हमें है चाहे दाता हो भगवान
नहीं चलेगा झोपड़ियों का महलों के हाथों अपमान
सुनो स्वर्ग के ठेकेदारों भय का जुटा रहे सामान
होनी की परवाह करे कब जिसने रखी हथेली जान

कड़क रही ये बिजली देखो है भीषण घन गर्जन आज
दम लेगा सर्वस्व बहाकर क्रोधातुर है सावन आज

छला गया जो युगों युगों तक निशिदिन करके कपट प्रहार
आज डटा है समरभूमि में दुर्जय लिये हाथ तलवार
रणचंडी को भेंट चढ़ाता काट काट मुंडों के हार
खंडित मायाजाल तुम्हारा ओ निर्दय हो जा तैयार

मना रहे जो जश्न सुनें वे इंद्रजीत के प्रियजन आज
बूटी दी है स्वयं काल ने जाग उठा फिर लछिमन आज

Tuesday, August 11, 2009

तीन डग में वामन वो, जग को नाप जाता है...

कई दिनों बाद फ़िर आपसे मुखातिब हूं, एक गज़ल के साथ जिसे संवारकर कहने लायक बनाया है गुरूदेव पंकज सुबीर जी ने। बहर है-बहरे हजज मुसमन अशतर। इसी बहर की प्रसिद्ध गज़ल जिंदगी की राहों में रंजो-गम के मेले हैं। भीड़ है कयामत की और हम अकेले हैं॥ उस्ताद जफ़र अली की आवाज में आपने जरूर सुनी होगी। कुछ सालों पहले आई गज़ल तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे भी इसी बहर में है। पिछले दिनों इस बहर पर गुरूजी तरही मुशायरे का भी आयोजन कर चुके हैं। पढ़िये इस गज़ल को और आशीर्वाद दीजिए-

छीनकर मिरी नींदें रातभर जगाता है
दिल का हाय जख्मों से कौन सा ये नाता है

इश्क की गली सूनी पर अजब है दीवाना
लेके फूल हाथों में अब भी रोज आता है

रोशनी सी होती है रोज मन के आंगन में
कौन है जो चुपके से दीप ये जलाता है

अब तो उससे मिलने को धड़कनें मचलती हैं
दूर कोई गीतों में नाम ले बुलाता है

होश कुछ है राजाओं, दीन जिसको समझे हो
तीन डग में वामन वो, जग को नाप जाता है

द्वारका ना मथुरा में और ना अयोध्‍या में
वो तो बस मिरे मन में अब धुनी रमाता है

सांस सबकी रुक जाएं, और हवाएं थम जाएं
धीरे धीरे दिलबर यूं घूंघटा उठाता है

देखकर रजा उसकी रो पड़ा सितमगर भी
चोट जो लगे तो रवि और मुस्कुराता है

Wednesday, August 5, 2009

बंधन, जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं

विद्रोही मन किसी भी बंधन को मानता नहीं पर बात जब रक्षाबंधन जैसे बंधनों कि हो तो सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि ये ऐसे बंधन हैं जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं। पढ़िये इस विद्रोही मन और बंधन के समागम से उपजी इस कविता को जिसे जन्म देने के क्रम में मनोगत प्रसव-पीड़ा से भी होकर गुजरना पड़ा है...पर सृजन के सुख के समक्ष वह पीड़ा कुछ भी नहीं....


नीति-रीति के कठिन पाश को यथाशक्ति इंकार किया है
पर यदि बंधन स्नेहयुक्त हो, तो, हंसकर स्वीकार किया है

गायक हूं मैं क्रांति-गीत का, शब्दों से अलख जगाता हूं
भर-भरकर गीतों में ज्वाला, जगती में प्रलय मचाता हूं
बोझ हटाता हूं माथे से, जीर्ण-शीर्ण सब संस्कारों के
स्वागत में फिर तरुणाई के, निज श्रद्धा-सुमन चढ़ाता हूं

है ये सच किंचित भी मुझको, नश्वर शरीर का मोह नहीं
किन्हीं क्षणों में पर इस तन में, शाश्वत ने शृंगार किया है

भेद अनूठा जाना जबसे, श्वास-श्वास में अभिनंदन है
बंधन में है मुक्ति समाहित, और मुक्ति में भी बंधन है
हो गई तुल्य देवालय के ये मिट्टी की काया अब तो
दीप-शिखा सी आत्मज्योति है, बुद्धि धूप है, मन चंदन है

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया

Thursday, July 23, 2009

ख्वाब हैं मेरे कि जी उठते हैं ईसा की तरह

इसबार का सूर्य-ग्रहण जो कई मायने में अनूठा था, आया और गया। बारिश कई जगह बाधक बन गया इस अद्भुत खगोलीय घटना का अवलोकन करने में। अब संयोग देखिये कि मेरा कंप्यूटर भी ग्रहण का शिकार हो गया और अभी तक है। शायद एक -दो दिन और लगे उबरने में। अभी-अभी एक गज़ल को गुरूदेव पंकज सुबीर जी ने संवार कर भेजा है, सो मैने सोचा जैसे भी हो इसे आप तक पहुंचाना चाहिये। जब तक फ़िर से सक्रिय होता हुं तब तक इसे आपकी नज़र करता हुं, देखें और आशीर्वाद दें।

दुख सजाये हैं गले में जबसे माला की तरह
पीछे-पीछे सुख चले आये हैं छाया की तरह

रोज सूली पर इन्हे दुनिया चढ़ाती है मगर
ख्वाब हैं मेरे कि जी उठते हैं ईसा की तरह

सामने होता है जब वो खुद को देता हूं मिटा
मैं समंदर से सदा मिलता हूं दरिया की तरह

वो तुम्‍हें जीवन के असली मायने सिखलायेंगें
तुम बुजुर्गों को समझना पाठशाला की तरह

आ भी जाओ राम बनकर राह पर आंखें लगी
जिंदगी पत्थर हुई शापित अहिल्या की तरह

Sunday, July 19, 2009

यह सावन शोक नसावन है....

वर्षा के आने के साथ ही प्रकृति एक नये उल्लास से भर जाती है। वैसे तो महाकवि कालिदास "आषाढस्य प्रथम दिवसे" को वर्षा ऋतु का आरंभ मानते हैं पर ज्यादातर कवियों ने सावन को चुना है। कवि का संवेदनशील मन वर्षा देवी के आकर्षण से अछूता नहीं रह पाता। भारतेंदु जी की पंक्तियां हैं-यह सावन शोक नसावन है मनभावन या में न लाजे मरौ। यमुना पे चलौ जु सबै मिलिके अरु गाई बजाई के शोक हरो॥ बाबा नागार्जुन का- बादल को घिरते देखा है, मेरी प्रिय रचनाओं में से एक है। एक ओर वर्षा देवी का आगमन संयोग को मधुर बनाता है वहीं दूसरी ओर वियोग को और कष्टप्रद। किसी ने लिखा है-सावन की रात है कि द्रौपदी की सारी है। अन्य कई कवियों ने सुंदर-सुंदर वर्षा गीत लिखा है। कुलमिलाकर ये कहना कि वर्षा कवियों की सारस्वत साधना का एक आवश्यक तत्त्व है, अतिशयोक्ति न होगी। आइये आपको अपना वर्षा गीत पढ़वाता हूं-

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ग्रीष्म-अनल चुपचाप सहे, मुख से न कहे कुछ भी धरती
जैसे कोई तपस्विनी, अतिविकट तपस्या हो करती


आज प्रतीक्षित पुण्य फला, उमड़-घुमड़ आया सावन है
मोती-सी बूंदें बरसीं, पुलकित वसुधा का यौवन है

जीर्ण वसन त्याग योगिनी, चुनरी धानी लहराती है
पास पिया को पा गोरी, सज-धज कर ज्यों इठलाती है

काले घन के बीच कभी, दामिनि ऐसे दिख जाती है
मध्य सुहागन कुंतल के, जैसे सिंदूर सजाती है


आठों याम दादुरों की, कुछ ऐसी ध्वनियां आती हैं
किसी लग्न वेदी पर ज्यों, सुंदरियां गीत सुनाती हैं


देखो पावस के आते, जीवन गतिमान हुआ कैसे
तज समाधि की निश्चलता, योगी फिर से विचरे जैसे


ग्रीष्म तपाया करता है, पावस के आने से पहले
आवश्यक दुख से परिचय, सुख जग में पाने से पहले


जीवन एक लता जिस पर, पावस निदाघ दो फूल लगे
मैं अपनाता दोनों को, मेरे हित जो अनुकूल लगे


दूरी पल भर की प्रिय से, मन में ज्वाला सुलगाती है
जाने कब चुपके-चुपके, दबे पांव घर आ जाती है

बढ़ती विरह वेदना जब, यादों के मेघ बुलाता हूं
उर का ताप मिटाने को, नयनों से जल बरसाता हूं

Thursday, July 16, 2009

वो मिरे दिल में गज़ल लिखता है बस मुस्कान से

ये आप सब का स्नेह है जो मुझे निरंतर लिखने की प्रेरणा देता है। पिछले दिनों गुरूपूर्णिमा पर गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी को दो शेर समर्पित किया था। आज उस पूरी गज़ल के साथ हाज़िर हूं। और हां, एक बात और, कुछ लोगों को उत्सुकता है मेरे बारे में जानने की पर मैंने अपने ब्लाग प्रोफ़ाईल में सिर्फ़ एक ही लाइन लिखा है। यदि उत्सुकता आज तक बरकरार हो तो कुछ और पहलू मेरी जिंदगी के जानने को मिल सकते हैं ताऊ जी के ब्लाग पर आज प्रकाशित परिचयनामा में। आइये अब और देरी न करते हुये सीधे गज़ल की ओर रूख करते हैं।

मैं जिन्हे कहता था अपना महफ़िलों में शान से
दोस्‍त वो ही मुश्‍किलों में बन गये अन्जान से

कौन कहता है कि डरकर खींच लूंगा पांव मैं

ले के कश्‍ती चल पड़ा हूं कह दो ये तूफान से

लीक पर चलना मिरी फ़ितरत में है शामिल नहीं
जंग जारी है मिरी अल्लाह से, भगवान से


कौन करता याद बिस्मिल और भगत को आजकल
हो गये मेले शहीदों के सभी वीरान से

उसको काग़ज़ और क़लम की क्‍या ज़रूरत है भला
वो मिरे दिल में गज़ल लिखता है बस मुस्कान से

दर्द से बेहाल जनता द्वार पर कब से खड़ी
किन्‍तु फुरसत है कहां राजा को नाच और गान से

Sunday, July 12, 2009

एक जागरण कविता

जब तक गज़ल पूरी होती है आइये आपको शुद्ध हिंदी में एक कविता सुनाता हूं। छंद वही है जो जयशंकर प्रसाद के " हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती" या रावणकृत "शिव-ताण्डव स्तोत्र " में है। तो लीजिए पेश है एक जागरण-कविता।

डटी रहे बिना झुके, कहां गई जवानियां
न सूरमा बचे यहां, नहीं बची निशानियां


चली अजीब है हवा, कहीं न फूल डाल पे
न आज वीर सामने, लहू सजे न भाल पे

जले सदा प्रदीप्त हो, दिगंत को प्रकाश दे
पले बढ़े सरोज-सा, खिले सदा सुवास दे

उबाल सिंधु में उठे, प्रचंड मत्त रोर से
बंधा फिरे निढाल-सा, मृगेंद्र हस्त-डोर से


दिशा-दिशा प्रसन्न हो, जयेति दिव्य-गान से

कठोर शूल भी जिन्हे, लगें लता समान से

वरें सहर्ष मृत्यु को, न ग्लानि का विधान हो
न लीक पे चलें कभी, बढ़ें स्वयं प्रमान हो

बता मुझे कहां गये, अमर्त्य पुत्र देश के
लगी विषाद कालिमा, ललाट पे दिनेश के


सुनो, सुनो, सुनो, सुनो, अबाध क्रांति गीत को

उठो, उठो, उठो, उठो, पढ़ो नवीन रीत को

चलो, चलो, चलो, चलो, करे पुकार भारती
बढो, बढ़ो, बढ़ो, बढ़ो सजी प्रभात आरती

Tuesday, July 7, 2009

लीक पर चलना मिरी फ़ितरत में है शामिल नहीं... जंग जारी है मिरी अल्लाह से, भगवान से

गुरूपूर्णिमा के बारे में कुछ भी लिखना सिर्फ़ अपनी अज्ञानता प्रकट करना होगा क्योंकि लिखने बैठे तो फ़िर इतनी बातें हैं जो कभी समाप्त न हो। एक अनगढ़ पत्थर को तराश कर सुंदर मूर्त्ति में बदले की कला गुरूजन में निहित होती है। ऐसे में सिवाय कृतज्ञता के भाव के और क्या किया जा सकता है? वैसे तो मैं प्रत्यक्षतः श्री पंकज सुबीर जी से नहीं मिला हूं पर जबसे उनके संपर्क में आया हूं, तुलसी के इस कथन में मेरा भरोसा बढ़ गया है- जब द्रवै दीन-दयालु राघव, साधु संगति पाइए आज गुरूपूर्णिमा पर मेरे पास उन्हे देने को नहीं है, बस नई गज़ल के दो शेर अर्पित करता हूं, जल्दी ही पूरी गज़ल सुनाउंगा।

ये रहे गुरूदेव को समर्पित शेर

कौन कहता है कि डरकर खींच लूंगा पांव मैं
ले के कश्‍ती चल पड़ा हूं कह दो ये तूफान से

लीक पर चलना मिरी फ़ितरत में है शामिल नहीं
जंग जारी है मिरी अल्लाह से, भगवान से

और अंत में, एक गीत से पारायण करता हूं-

मन-मंदिर में, बिठा तुम्हे, प्रिय! किये गीत, सब अर्पण अपने
और मिला फ़िर, ये प्रसाद, तुमने देखा, है मुझे नजर भर

ले-देकर इन आंखों में
बस एक ख्वाब, हरदम पलता था
जैसे भी हो, मिलना हो
ये दीप सदा, निशचल जलता था

इससे सुंदर, जीवन की, छवि भला और, अब क्या हो सकती
मुझे अंक में, लिया और, निज वरद-हस्त, रख दिया भाल पर

सकल सिद्धियां व्यर्थ हुईं
कुछ पाने की, मन में चाह नहीं
तुम मिले, मिली, है मंजिल
आगे अब कोई राह नहीं

वाणी तेरी, प्रीत-पगी, सुनकर होता, मन शीतल मानो
मधुर चांदनी, पूनम की, हो बरस रही, मुझ पर झर-झर कर