Friday, September 26, 2008

जब तक कुछ नया न लिखूँ

इधर कुछ दिनों से नया कुछ लिखा नहीं है। जब तक कुछ नया लिखूँ तब तक के लिए अपनी एक पुरानी रचना पाठकों के लिए पेश है-

निवेदन
मेरे शब्द प्रतीक्षारत हैं स्वर अपने दे जाना तुम
मन-मंदिर का तम मिट जाए ऐसा दीप जलाना तुम

नील गगन सी विस्तृत आँखें
सजते जिसमे स्वप्न-सितारे
मैं पीड़ा की महानिशा में
चक्रवाक ज्यों नदी किनारे
दग्ध-हृदय कुछ तो शीतल हो मिलन-सुधा बरसाना तुम
मेरे शब्द…………………………………………………

रिश्तों की शुष्क लता जी जाए
स्नेह-वारियुत सावन हो
छूते ही स्वर्ण बना दोगे
तुम तो पारस से पावन हो
मैं दूँ पत्थर को मूर्त्तरूप, मूर्त्ति में प्राण बिठाना तुम
मेरे शब्द……………………………………………

Saturday, September 20, 2008

विरह-मिलन के छंद सजाऊँ या ज्वाला के गीत लिखूँ

कवि एक संवेदनशील जीव होता है। इसलिए उसके आस-पास जो कुछ घटित होता है उससे उसका अछूता रहना संभव नहीं होता। किस विषय पर कविता लिखी जाए यह सवाल कभी न कभी कवि-हृदय को झकझोरता ही है। ऐसे ही किसी समय में मैने अपनी कविता कविता का विषय में लिखा था-

विरह-मिलन के छंद सजाऊँ
या ज्वाला के गीत लिखूँ
स्वर बनूँ श्याम की मुरली का
अथवा विप्लव की रीत लिखूँ

आज माड़साब की संसदवाली गजल पढ़ने के बाद यह धारणा और भी बलवती हो गयी कि कवि वर्त्तमान की अनदेखी नहीं कर सकता है। मेरी एक अन्य कविता मैने उसको जीत लिखा की कुछ पंक्तियाँ देखें-

जब-जब अश्रु नयन में आए
मैने तब-तब गीत लिखा
*******************
कवि हुँ, लेखन का बस
इतना ही मैं मर्म समझता हूँ
अंजामो की फ़िक्र बिना
सच कहना धर्म समझता हूँ
उन्मादी खत के उत्तर में
मैने निश्छल प्रीत लिखा

तो आज एकबार फ़िर से वर्त्तमान को शब्द देने की आतुरता जोर पकड़ रही है। आगे तो वक्त ही बताएगा कि ऐसा कुछ लिख पाता हूँ या नहीं।

Wednesday, September 17, 2008

ये जो सबसे अलग दिखने की चाह है

आज के दौर की सबसे बड़ी माँग है कि आप अपने आप को मार्केट में कैसे स्थापित कर पाते हैं। और इस वजह से दिखावेपन का धंधा काफ़ी फल-फूल रहा है। पर एक बात तो तय है कि दिखावे में जिन्हे ज्यादा भरोसा है उनमें आत्मविश्वास की कमी है। वरना इतनी चिंता क्यों? फूल खिलता है तो खूश्बू तो फैल ही जाती है । ये जो सबसे अलग दिखने की चाह है इसने कहीं का न छोड़ा। बिना नींव की चिंता किये इमारत की डेन्टिंग-पेन्टिंग से क्या हासिल होनेवाला है? शाखाओं से ज्यादा जड़ों के हिफ़ाजत की जरूरत है। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि कोई अपनी प्रतिभा को दबाए/छुपाए बल्कि उसके बेवजह बिना देश, काल एवं पात्र का ध्यान किये प्रदर्शन और जरूरत से ज्यादा प्रदर्शन उचित नहीं है।

Sunday, September 14, 2008

जहाँ शब्द कम पड़ जाते हैं

यह हम सबका अनुभव है कि जब भावनाओं का सैलाब उमड़ता है, वाणी मूक हो जाती है। कितना भी कहने की कोशिश करो लगता है कुछ अनकहा रह गया। मैंने सुना है रवीन्द्रनाथ टैगोरे से उनके जीवन के आखिरी दिनों में किसी ने पूछा आप तो अत्यंत प्रसन्न होंगे क्योंकि आपने कितने ही अमर गीत रचे। रवीन्द्रनाथ ने जो उत्तर दिया वह विचारने योग्य है। उन्होने कहा, भीतर तो मेरे एक ही गीत गूँज रहा था जिसे गाने के मैने इतने सारे प्रयास किये। और सारा प्रयास निष्फल हो गया है क्योंकि वो अभी भी गाया न जा सका है। कई बार सोचता हूँ कि क्या दिल से हर कोई कवि/शायर नहीं है? हर कोई उसे शब्द नहीं दे पाता पर सबके भीतर गीत तो ऊठता ही है। साथ ही सोचता हूँ कि अगर शब्द जान-पहचान के न हुए तब भी के काव्य का आनंद कुछ कम हो पाता है? क्या सुबह-सुबह पक्षियों का मादक गीत अनजानी भाषा में होते हुए भी हमारे हृदय को तरंगित नहीं कर जाता? एक तितली फूलों के कान में जो गीत सुना जाती है क्या उसकी मिठास कम होती है?

Saturday, September 13, 2008

महकी-महकी हवा चली है

गुरूदेव पंकज सुबीर जी से गजल की प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ। उन्ही के सहयोग से कुछ लिखे जैसा प्रयासकिया है।

तुम्हारी ज़ुल्फ़ें खुली हुई हैं के महकी-महकी हवा चली है

बहारों के दिन नहीं हैं लेकिन खिली खिली आज हर कली है


सुना है किस्मत बदलके रख दे कशिश भरी है नजर किसी की

यहीं पे टूटा गमों से नाता पता है उनकी ही ये गली है


खुदा बचाए ये मेरी हसरत बनी हकीकत न जाने क्या हो

कदम जमीं पर वो रख रही है नमी सी आँखों में जो पली है


सता रहा था किसीको जाड़ा न था उजाला किसीके घर में

इलाज फ़िर से वही है याने अभागी बस्ती लो फ़िर जली है


मिजाज कैसा है कैसी आवारगी हमारी न हाल पूछो

जमाना दुश्मन हुआ करे पर दुआ भला मां की कब टली है

Thursday, September 11, 2008

वेदना अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग स्वयं खोज लेती है

दुख का कारण चाहे जो भी हो वह व्यक्त होना चाहता है। और व्यक्ति यदि सहृदय हो तो निश्चित रूप से वेदना काव्य/साहित्य का माध्यम चुनती है। पंत जी ने कहा है-
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान
वस्तुतः काव्य तो शुरू ही दुख से हुआ। तमसा-तट पर महर्षि बाल्मिकि का शोक ही श्लोक बन गया और इस तरह से संसार का पहला काव्य रचा गया। जीवन जब भी दुखों से भर जाए यह प्रयोग करने जैसा है। वेदना को शब्द दें। जल्दी ही आप इसका असर महसूस कर पाएँगे।

मिट गया हूँ मैं

यह मेरी प्रिय कविताओं में से एक है।
पहली बार यहाँ प्रकाशित- हिन्द-युग्म: प्रतियोगिता से एक कविता
तुम जो आए स्वप्न-से
पग के अनेकों शूल चुनकर।
स्याह अमावस की घड़ी में
मिले विभा के फूल बनकर॥
इन रिक्त अधरों को मेरे
मधुगीत का वरदान देकर।
किया शमित चिर-तृषा को
स्नेह-सिक्त रसपान देकर।
किन्तु किस कौतुक कला से
तुम हुए दृग से अलक्षित।
सूने मन के हाट में फिर
विरह व्यथा से हो व्यथित।

तुम्हें ढूँढ़ता हूँ मैं।
तुम्हें ढूँढ़ता हूँ मैं।

मै बावरा सब जग फिरा
तुमसे मिलन की आस में।
अज्ञात था ये भेद तब
तुम ही बसे हर सांस में।
तुमसे परिचय जब हुआ
दृग ने अनोखी दृष्टि पाई।
तुम्हारी वीणा के स्वरों पर
झूमती ये सृष्टि पाई।
क्यों है ये खोने का भय
पाकर अपनी ही थाती को।
प्यासा सीप ज्यो चाहे संजोना
बूंद-बूंद जल स्वाती को।

तुम्हें देखता हूँ मैं।
तुम्हें जी रहा हूँ मैं।

हर्ष में या विसाद में
कभी छांह मे कभी धूप में।
आलोक तुम्हारा ही प्रकट
इस रूप में उस रूप में।
मिथ्या भय था खो जाने का
व्यर्थ विकल थे मेरे प्राण।
सच पूछो मेरा होना भी
तुम्हारे होने का ही प्रमाण।
अब मैं नहीं अब तुम नहीं
फिर मिलन भी कैसे कहूँ?
जब शेष नहीं कोई भेद
बोलो द्वैतमय कैसे रहूँ?

मिट गया हूँ मैं।
तुझमें खो गया हूँ मैं।