Thursday, September 11, 2008

मिट गया हूँ मैं

यह मेरी प्रिय कविताओं में से एक है।
पहली बार यहाँ प्रकाशित- हिन्द-युग्म: प्रतियोगिता से एक कविता
तुम जो आए स्वप्न-से
पग के अनेकों शूल चुनकर।
स्याह अमावस की घड़ी में
मिले विभा के फूल बनकर॥
इन रिक्त अधरों को मेरे
मधुगीत का वरदान देकर।
किया शमित चिर-तृषा को
स्नेह-सिक्त रसपान देकर।
किन्तु किस कौतुक कला से
तुम हुए दृग से अलक्षित।
सूने मन के हाट में फिर
विरह व्यथा से हो व्यथित।

तुम्हें ढूँढ़ता हूँ मैं।
तुम्हें ढूँढ़ता हूँ मैं।

मै बावरा सब जग फिरा
तुमसे मिलन की आस में।
अज्ञात था ये भेद तब
तुम ही बसे हर सांस में।
तुमसे परिचय जब हुआ
दृग ने अनोखी दृष्टि पाई।
तुम्हारी वीणा के स्वरों पर
झूमती ये सृष्टि पाई।
क्यों है ये खोने का भय
पाकर अपनी ही थाती को।
प्यासा सीप ज्यो चाहे संजोना
बूंद-बूंद जल स्वाती को।

तुम्हें देखता हूँ मैं।
तुम्हें जी रहा हूँ मैं।

हर्ष में या विसाद में
कभी छांह मे कभी धूप में।
आलोक तुम्हारा ही प्रकट
इस रूप में उस रूप में।
मिथ्या भय था खो जाने का
व्यर्थ विकल थे मेरे प्राण।
सच पूछो मेरा होना भी
तुम्हारे होने का ही प्रमाण।
अब मैं नहीं अब तुम नहीं
फिर मिलन भी कैसे कहूँ?
जब शेष नहीं कोई भेद
बोलो द्वैतमय कैसे रहूँ?

मिट गया हूँ मैं।
तुझमें खो गया हूँ मैं।

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