डटी रहे बिना झुके, कहां गई जवानियां
न सूरमा बचे यहां, नहीं बची निशानियां
चली अजीब है हवा, कहीं न फूल डाल पे
न आज वीर सामने, लहू सजे न भाल पे
जले सदा प्रदीप्त हो, दिगंत को प्रकाश दे
पले बढ़े सरोज-सा, खिले सदा सुवास दे
उबाल सिंधु में उठे, प्रचंड मत्त रोर से
बंधा फिरे निढाल-सा, मृगेंद्र हस्त-डोर से
दिशा-दिशा प्रसन्न हो, जयेति दिव्य-गान से
कठोर शूल भी जिन्हे, लगें लता समान से
वरें सहर्ष मृत्यु को, न ग्लानि का विधान हो
न लीक पे चलें कभी, बढ़ें स्वयं प्रमान हो
बता मुझे कहां गये, अमर्त्य पुत्र देश के
लगी विषाद कालिमा, ललाट पे दिनेश के
सुनो, सुनो, सुनो, सुनो, अबाध क्रांति गीत को
उठो, उठो, उठो, उठो, पढ़ो नवीन रीत को
चलो, चलो, चलो, चलो, करे पुकार भारती
बढो, बढ़ो, बढ़ो, बढ़ो सजी प्रभात आरती
न सूरमा बचे यहां, नहीं बची निशानियां
चली अजीब है हवा, कहीं न फूल डाल पे
न आज वीर सामने, लहू सजे न भाल पे
जले सदा प्रदीप्त हो, दिगंत को प्रकाश दे
पले बढ़े सरोज-सा, खिले सदा सुवास दे
उबाल सिंधु में उठे, प्रचंड मत्त रोर से
बंधा फिरे निढाल-सा, मृगेंद्र हस्त-डोर से
दिशा-दिशा प्रसन्न हो, जयेति दिव्य-गान से
कठोर शूल भी जिन्हे, लगें लता समान से
वरें सहर्ष मृत्यु को, न ग्लानि का विधान हो
न लीक पे चलें कभी, बढ़ें स्वयं प्रमान हो
बता मुझे कहां गये, अमर्त्य पुत्र देश के
लगी विषाद कालिमा, ललाट पे दिनेश के
सुनो, सुनो, सुनो, सुनो, अबाध क्रांति गीत को
उठो, उठो, उठो, उठो, पढ़ो नवीन रीत को
चलो, चलो, चलो, चलो, करे पुकार भारती
बढो, बढ़ो, बढ़ो, बढ़ो सजी प्रभात आरती
9 comments:
atyant sundar
atyant sugathit
aur atyant parakrampoorna kavita ke liye
badhaai !
बहुत सुंदर
सुंदर एवं ओजपूर्ण कविता, आप हैं रचयिता;
तो पढ़कर मैं क्यूँ भला, टिप्पणी न करता.
साभार
प्रशान्त कुमार (काव्यांश)
हमसफ़र यादों का.......
बहुत समय पश्चात ऐसी उत्कृष्ट रचना पढ़ी-अद्भुत!! अनेक बधाई और शुभकामनाऐं.
बहुत अच्छी कविता है रविकांत । बीर रस की कविताएं अक्सर इसी छंद में लिखी जाती हैं । शिव तांडव स्तोत्र मेरी सबसे मनपसंद कविता है । उसका शब्द संयोजन अद्भुत है । कुछ समय पहले तक तो पूरा याद था और उसे सस्वर पढ़ने में बहुत आनंद आता था । मेरे अंदर वीर रस की कविता के संस्कार उसीने डाले हैं ।
वैसे ये मुफाएलुन-मुफाएलुन-मुफाएलुन-मुफाएलुन है । अर्थात 1212-1212-1212-1212 ये बहरे हजज मुसमन मकबूज होती है । इसकी बहरे हजज मुरब्बा मकबूज जियादह चलन में है । कविता बहुत सुंदर है ।
गुरु जी के आशीष के पश्चात और कहना भी क्या बाकी रह गया...! बस ये कहूँगि कि आप की लेखनी का शुमार मैं उन चंद लोगो में करती हूँ जो शायद अद्भुत क्षमता रखते हैं...!
बधाई
बीर रस की बहुत सुंदर कविता है रवि ji ........ओजपूर्ण, dil mein ubaal laati hain aisi rachnaayen......... lajawaab .......
स्कूल की पाठ्य पुस्तिका में ऍसी वीर रस की कविताएँ अक्सर सबसे ज्यादा असर करती थीं। आपकी इस कविता ने उन दिनों की याद दिला दी जब दिनकर की पंक्तियाँ पढ़ कर ही मन में उबाल आ जाता था।
आपकी शैली, आपका हिंदी पर अधिकार, आपके शब्द-भंडार...सब चकित करते हैं रवि भाई।
और अब तो हमारा नाम अपने फैन की फ़ेहरिश्त में शामिल कर लें।
क्या लिखते हो गुरू भाई...नमन है आपको!
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