मोबाइल कवि-सम्मेलन यही नाम मुझे सबसे उपयुक्त लग रहा है। इसलिये क्योंकि यह ऐसा आयोजन था जिसमें कवि और श्रोता दोनों ही गतिमान थे। सुबह-सुबह उठना और कहीं जाना तो वैसे ही कष्टकारी होता है, तिस पर जाड़े की सुबह छह बजे। स्नान करके तैयार हुआ और देखा तो बाहर अभी अंधेरा था, पर संकल्प तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिये दांत के असहनीय दर्द से पूरी रात न सो पाने के बावजूद मैंने अपने सहयात्रीद्वय को ये बात बताई नहीं और तय कार्यक्रम के अनुसार हम तीनों अपनी-अपनी द्विचक्रवाहिनी (साइकिल) से रवाना हुये। साढ़े पांच घंटे में हमने लगभग पचास किलोमीटर की दूरी तय की। ये सफ़र विक्रम-बैताल के सफ़र की तरह रोमांचक रहा, फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि विक्रम ने कहानियां सुनी थीं और मुझे कविता सुनने को मिला। मैं, मेरा एक मित्र और नागर कवि, तीन लोग इस कारवां में शामिल थे। आगे बढ़ने से पहले उचित है कि
प्रकाश अर्श की मुश्किल भी आपको बताता चलूं जैसा कि ऊपर शीर्षक से आपको कुछ अनुमान हो ही गया होगा। इसे समझने के लिये
गुरूभाई गौतमजी के यहां अर्श की टिप्पणी का स्नैपशाट देखें-

अर्श भाई ने ये तो मासूमियत से कह दिया कि अभी मेरी शादी भी नहीं हुई (वैसे इसमें मुश्किल क्या है? उल्टे खुश होना चाहिये!!) पर उसके पीछे की कहानी नहीं बताई। कारण है उनके द्वारा रखी गई विभिन्न शर्तें। उन शर्तों को जानने के लिये कथा के मूल में वापस लौटते हैं। अगर कहीं छठी इंद्रिय नाम की चीज होती है तो उसने मुझे सचेत किया कि कानपुर जैसे शहर में जी टी रोड पर कवि के साथ यात्रा करने का रिस्क नहीं लिया जा सकता इसलिये हमने अपेक्षाकृत शांत शिवली रोड की ओर रूख किया। पूरे रास्ते नागर कवि ने कविता सुनाई और ये बता देना अपना धर्म समझता हूं कि इनका करूण रस पर अद्भुत नियंत्रण है। आपको भरोसा न हो तो कभी रिकार्ड करके सुनवाता हूं। मुझे जो सबसे ज्यादा पसंद आई वो अनुसूया और रत्नावली पर लिखी उनकी करुण रस की कविता, वो बाद में कभी सुनवाता हूं आपको। और भी बहुत कुछ सुनाया उन्होने, कुछ अपना और कुछ दूसरों का लिखा भी। खैर इअनमें कई के मूलकवि का तो मुझे भी पता नहीं पर रचना का आनंद तो लिया ही जा सकता है तो जैसा मैने सुना और जितना ग्रहण किया उसे सामने रखता हूं। सबसे पहले ये कवित्त सुनिये, प्रकाश अर्श से पूरी सहानुभूति रखते हुये-
ब्याह करने को हम, कोटिन उपाय किये
नौ दिन उपवास किये, नव-दुर्गा कालिका
फ़िरो कोऊ आयो नाहीं, फ़ोटु है मंगायो नाहिं
उदयपुर ग्राम में है निज की अट्टालिका
हारिन दुःखारी होय, तौल में न भारी होय
सुघर सुनारी होय, जैसे शुभ्र तारिका
खांसे तो खमाज राग, हंसे तो हिंडोल लसे
रोवत में रामकली, ऐसी होय गायिका
नृत्य में नवीन होय, ताल में प्रवीन होय
रूप-रंग अंग में, सुअंग होय नायिका
नोटन की गड्डी से, खेलें हम कबड्डी नित
नागर कवि ठाठ से मनावें दीपमालिका
(एक दो पंक्तियां छूट गई हैं)
मैं तो नवरात्रि में नौ दिन का व्रत रखने वाले प्रकाश अर्श से इतना ही कहूंगा कि इतनी ज्यादा शर्तें रखोगे तब तो इस जन्म में कोई नहीं मिलने वाली। आइये इस संस्मरण का पारायण वेदांत दर्शन के इस अनोखे प्रयोग से करते हैं-
देखकर वेदांत-दर्शन आ गया है होश कुछ
कर्म कैसे भी करो, लगता न तुमको दोष कुछ
प्रेम से सत्संग,प्रवचन, कीरतन में जाइये
छांट करके खूबसूरत चप्पलें ले आइये
बात हंसने की नहीं, ये कल्पना कोरी नहीं
सब प्रभु की वस्तु जग में, इसलिये चोरी नहीं
आज इतना ही, शेष फ़िर कभी।