Monday, January 18, 2010

अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे

बहुत दिनों बाद एक गज़ल आपकी नज़र कर रहा हूं। गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी ने संवारकर इसे कहने लायक बनाया है। पढ़िये और बताइये कैसी लगी ?

खून-पसीना खेतों में तो जनता रोज बहाती है
लेकिन
किसके हल के नीचे बोलो सीता आती है

षडयंत्रों का खेल रचाता घात लगाकर झूठ मगर
सच्‍चाई
फिर भी लाक्षागृह से जिंदा बच जाती है

बेशर्मी जब-जब बढ़ती है मर्यादा की सीमा से
शूर्पणखा तब- तब लक्ष्मण के हाथों नाक गंवाती है


घर से निकलो तो हिम्‍मत की छतरी भी संग ले लेना
हिंसा
की बूंदें बरसेंगीं, मौसम ये बरसाती है

अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे
कोई
मुंबइ वाला है तो कोई यहां गुजराती है

सदियों की सब धूल हटाकर बंद कपाटें खोलीं तो
सुब्‍ह
सवेरे अब खिड़की पर आकर धूप जगाती है

कागज़ और कलम के दम पर मुश्किल तुझको खत लिखना
पुरवाई
के हाथ पठाई खुश्‍बू की ये पाती है

सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों
को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है

Monday, January 11, 2010

मोबाइल कवि-सम्मेलन, प्रकाश अर्श की मुश्किलें और वेदांत दर्शन का अनोखा प्रयोग

मोबाइल कवि-सम्मेलन यही नाम मुझे सबसे उपयुक्त लग रहा है। इसलिये क्योंकि यह ऐसा आयोजन था जिसमें कवि और श्रोता दोनों ही गतिमान थे। सुबह-सुबह उठना और कहीं जाना तो वैसे ही कष्टकारी होता है, तिस पर जाड़े की सुबह छह बजे। स्नान करके तैयार हुआ और देखा तो बाहर अभी अंधेरा था, पर संकल्प तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिये दांत के असहनीय दर्द से पूरी रात न सो पाने के बावजूद मैंने अपने सहयात्रीद्वय को ये बात बताई नहीं और तय कार्यक्रम के अनुसार हम तीनों अपनी-अपनी द्विचक्रवाहिनी (साइकिल) से रवाना हुये। साढ़े पांच घंटे में हमने लगभग पचास किलोमीटर की दूरी तय की। ये सफ़र विक्रम-बैताल के सफ़र की तरह रोमांचक रहा, फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि विक्रम ने कहानियां सुनी थीं और मुझे कविता सुनने को मिला। मैं, मेरा एक मित्र और नागर कवि, तीन लोग इस कारवां में शामिल थे। आगे बढ़ने से पहले उचित है कि प्रकाश अर्श की मुश्किल भी आपको बताता चलूं जैसा कि ऊपर शीर्षक से आपको कुछ अनुमान हो ही गया होगा। इसे समझने के लिये गुरूभाई गौतमजी के यहां अर्श की टिप्पणी का स्नैपशाट देखें-


अर्श भाई ने ये तो मासूमियत से कह दिया कि अभी मेरी शादी भी नहीं हुई (वैसे इसमें मुश्किल क्या है? उल्टे खुश होना चाहिये!!) पर उसके पीछे की कहानी नहीं बताई। कारण है उनके द्वारा रखी गई विभिन्न शर्तें। उन शर्तों को जानने के लिये कथा के मूल में वापस लौटते हैं। अगर कहीं छठी इंद्रिय नाम की चीज होती है तो उसने मुझे सचेत किया कि कानपुर जैसे शहर में जी टी रोड पर कवि के साथ यात्रा करने का रिस्क नहीं लिया जा सकता इसलिये हमने अपेक्षाकृत शांत शिवली रोड की ओर रूख किया। पूरे रास्ते नागर कवि ने कविता सुनाई और ये बता देना अपना धर्म समझता हूं कि इनका करूण रस पर अद्भुत नियंत्रण है। आपको भरोसा न हो तो कभी रिकार्ड करके सुनवाता हूं। मुझे जो सबसे ज्यादा पसंद आई वो अनुसूया और रत्नावली पर लिखी उनकी करुण रस की कविता, वो बाद में कभी सुनवाता हूं आपको। और भी बहुत कुछ सुनाया उन्होने, कुछ अपना और कुछ दूसरों का लिखा भी। खैर इअनमें कई के मूलकवि का तो मुझे भी पता नहीं पर रचना का आनंद तो लिया ही जा सकता है तो जैसा मैने सुना और जितना ग्रहण किया उसे सामने रखता हूं। सबसे पहले ये कवित्त सुनिये, प्रकाश अर्श से पूरी सहानुभूति रखते हुये-

ब्याह करने को हम, कोटिन उपाय किये
नौ दिन उपवास किये, नव-दुर्गा कालिका
फ़िरो कोऊ आयो नाहीं, फ़ोटु है मंगायो नाहिं
उदयपुर ग्राम में है निज की अट्टालिका
हारिन दुःखारी होय, तौल में न भारी होय
सुघर सुनारी होय, जैसे शुभ्र तारिका
खांसे तो खमाज राग, हंसे तो हिंडोल लसे
रोवत में रामकली, ऐसी होय गायिका
नृत्य में नवीन होय, ताल में प्रवीन होय
रूप-रंग अंग में, सुअंग होय नायिका
नोटन की गड्डी से, खेलें हम कबड्डी नित
नागर कवि ठाठ से मनावें दीपमालिका
(एक दो पंक्तियां छूट गई हैं)

मैं तो नवरात्रि में नौ दिन का व्रत रखने वाले प्रकाश अर्श से इतना ही कहूंगा कि इतनी ज्यादा शर्तें रखोगे तब तो इस जन्म में कोई नहीं मिलने वाली। आइये इस संस्मरण का पारायण वेदांत दर्शन के इस अनोखे प्रयोग से करते हैं-

देखकर वेदांत-दर्शन आ गया है होश कुछ
कर्म कैसे भी करो, लगता न तुमको दोष कुछ

प्रेम से सत्संग,प्रवचन, कीरतन में जाइये

छांट करके खूबसूरत चप्पलें ले आइये

बात हंसने की नहीं, ये कल्पना कोरी नहीं

सब प्रभु की वस्तु जग में, इसलिये चोरी नहीं


आज इतना ही, शेष फ़िर कभी।

Monday, December 28, 2009

मुझको याद तुम्हारी आती

मित्रों, नमस्कार!
करीब महीने भर बाद वापस आया हूं और संयोग ऐसा है कि एक ओर इस साल को विदाई देनी है तो दूसरी ओर नये का स्वागत भी करना है। इस अवसर पर एक गीत पढ़ें और अपनी राय से अवगत करायें-



ये तो हुई पुराने की विदाई और नये के स्वागत की बात पर अगर पूरे वर्ष को देखूं तो मेरे लिये हर्ष और विषाद दोनों से भरा रहा। और कई बार तो ऐसा हुआ कि दोनों इकट्ठे एक ही क्षण में आये और सही मायने में कहूं तो मुझे किंकर्त्तव्यविमूढ़ करने में कोई कसर न छोड़ा। हां, इस सफ़र में गुरूजनों और प्रियजनों का साथ जरूर संबल देता रहा, हर मोड़ पर। अगर हिंदी की बात करूं तो यथाशक्ति जो मुझसे हो सकता था, प्रयत्न किया, जैसे-



ऐसी कुछ और चीजें भी शामिल रहीं, उनके बारे में फ़िर कभी बात करूंगा। फ़िलहाल मुझे आज्ञा दीजिये, नये साल में गज़ल के साथ फ़िर मिलता हूं।

नोट: सरसों वाली फोटो http:/यहां से और पीपल वाली यहां से ली गई है तथा संबंधित लोगों को सूचित भी कर दिया है। आपत्ति की स्थिति में हटा ली जायेगी।

Monday, November 30, 2009

वो नन्ही कली एक आई है जबसे......

मित्रों नमस्कार। पिछले २१ नवंबर, शनिवार की रात्रि में कुदरत ने हमें ऐसी खुशी से नवाजा कि घर-आंगन सदा-सदा के लिये हरा-भरा हो गया। जैसा कि आपको गुरू जी की पोस्ट से पता चल ही गया होगा हमारे घर स्वयं आदिशक्ति पधारी हैं। जल्द ही फोटो लगाता हूं, तब तक इस नन्ही परी के स्वागत में एक कविता, आपकी दुआओं और आशीर्वाद का इंतज़ार रहेगा-


वो नन्ही कली एक आई है जबसे
महकने लगा है चमन धीरे-धीरे
भंवर गुनगुनाते, हवा नाचती है
हुये सब खुशी में मगन धीरे-धीरे

हर इक बात उसकी तो जादू भरी है
उतर आई धरती पे कोई परी है

जमीं उसकी आहट पे खुशियां बिछाती

कदम चूमता है गगन धीरे-धीरे


वो खुद है रुबाई, वो खुद ही गज़ल है
सरोवर में खिलता हुआ इक कंवल है
उसे चांदनी रोज लोरी सुनाती
है झूला झुलाती पवन धीरे धीरे

सिखायेगी सबको नये गीत गाना
चलेगा उसीके ये पीछे जमाना

वो इक दिन सितारों से ऊपर उठेगी

ये मन में लगी है लगन धीरे-धीरे

Friday, November 20, 2009

रोते को हंसा दो तो कोई बात है साहिब, हंसते को रुला देना बड़ी बात नहीं है

मित्रों नमस्कार! आज आपको एक गज़ल पढ़वाता हूं। गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी ने इसे संवारकर कहने लायक बनाया है। पढ़िये और कैसी लगी, बताइये-

मर-मिटने का गर जंग में जज्बात नहीं है
कदमों
में तिरे जीत की सौगात नहीं है

रोते को हंसा दो तो कोई बात है साहिब
हंसते को रुला देना बड़ी बात नहीं है


काश! हकीकत में भी होती वो जमीं पर
कागज़ पे सड़क होना करामात नहीं है


हिन्दू न मुसलमान नहीं सिक्ख इसाई
आदम के सिवा और मिरी जात नहीं है


उतरेगा किसी रोज तो दौलत का नशा भी
होगी न सहर ऐसी कोई रात नहीं है


आराम से भर पेट जिसे चल दिए खाकर
जीवन कोई थाली में रखा भात नहीं है


दो-चार फ़ुहारों से नहीं बात बनेगी
ना प्‍यास बुझाए जो वो बरसात नहीं है


कशमीर से गुजरात तलक हाल वही है
किस शहर में आतंक का उत्पात नहीं है


Tuesday, November 17, 2009

गीत न लिखता तो क्या करता

मित्रों, फ़िर से हाज़िर हूं आपकी खिदमत में। पढ़िये इस गीत को और अपनी राय से अवगत कराईये-

एक तुम्हारा, मधुर हास है, दूजे ये मधुमास पुनीते!

तीजे ठहरी, रात चांदनी, गीत न लिखता, तो क्या करता


झरें अधर से, बोल प्रेम के
जब मदमाती, पुरवाई में

ऐसा लगता, कूक रही हो
जैसे कोयल, अमराई में

सजा गया है, चांद रूप को
और सुना है स्‍वयं रात ने,

पहनाया झिलमिल तारों का
कंगन फिर आज कलाई में


मुझको फ़िर कर गया पराजित, प्रिये! तुम्हारा हृदय-समर्पण
सुर-दुर्लभ इस प्रणय-हार को, जीत न लिखता तो क्या करता


शुभे! हंसिनी, बन तुम आई
विश्व सकल ये, मानसरोवर

बना
सीप से, मोती पहले
चुन लो मुझको, फ़िर तुम आकर

विदित मुझे ये, कठिन बहुत है
कुछ भी कहना, लेकिन फ़िर भी
,
सोच रहा मैं, अवश-अकिंचन
उपमाएं क्या वारूं तुम पर


खोज थका मैं, मिला न मुझको, अपर शब्द कोई भी सुंदर
तुम्हे सुहावन, प्रिय मनभावन, मीत न लिखता, तो क्या करता

Monday, November 9, 2009

जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये....

मित्रों, आज ये मेरी पचासवीं पोस्ट हाजिर है। कच्छप-गति से चलते-चलते आपके दुआओं के सहारे यहां तक आ पहुंचा हूं। इसी कड़ी में आज पढ़िये ये गज़ल जो आदरणीय प्राण शर्मा जी के सुझावों और आशीर्वाद के बाद कहने लायक बन पाई है-

कुछ बिक गये, कुछ एक जमाने से डर गये
जितने भी थे गवाह वो सारे मुकर गये


हमने तमाम उम्र फ़रिश्ता कहा जिन्हे
ख्वाबों के पंछियों की वो पांखें कुतर गये


कुर्सी के दांव-पेंच का आलम ये देखिये
जिस ओर की हवा थी, महाशय उधर गये


सच उनके घर गुनाह में शामिल है इसलिये

जब भी गये हैं लेके हथेली पे सर गये


मेरी तो कोई बात भी उनसे छुपी नहीं
हैरत से देखते हैं जो देने खबर गये


दुनिया की हर बुराई थी जिनमें भरी हुई
सत्ता के शुद्ध-जल से वो पापी भी तर गये


मेरे अजीज मुझसे सरेराह जो मिले
मुंह फ़ेरकर जनाब मजे से गुज़र गये