Wednesday, August 5, 2009

बंधन, जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं

विद्रोही मन किसी भी बंधन को मानता नहीं पर बात जब रक्षाबंधन जैसे बंधनों कि हो तो सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि ये ऐसे बंधन हैं जो मुक्ति का एहसास दिलाते हैं। पढ़िये इस विद्रोही मन और बंधन के समागम से उपजी इस कविता को जिसे जन्म देने के क्रम में मनोगत प्रसव-पीड़ा से भी होकर गुजरना पड़ा है...पर सृजन के सुख के समक्ष वह पीड़ा कुछ भी नहीं....


नीति-रीति के कठिन पाश को यथाशक्ति इंकार किया है
पर यदि बंधन स्नेहयुक्त हो, तो, हंसकर स्वीकार किया है

गायक हूं मैं क्रांति-गीत का, शब्दों से अलख जगाता हूं
भर-भरकर गीतों में ज्वाला, जगती में प्रलय मचाता हूं
बोझ हटाता हूं माथे से, जीर्ण-शीर्ण सब संस्कारों के
स्वागत में फिर तरुणाई के, निज श्रद्धा-सुमन चढ़ाता हूं

है ये सच किंचित भी मुझको, नश्वर शरीर का मोह नहीं
किन्हीं क्षणों में पर इस तन में, शाश्वत ने शृंगार किया है

भेद अनूठा जाना जबसे, श्वास-श्वास में अभिनंदन है
बंधन में है मुक्ति समाहित, और मुक्ति में भी बंधन है
हो गई तुल्य देवालय के ये मिट्टी की काया अब तो
दीप-शिखा सी आत्मज्योति है, बुद्धि धूप है, मन चंदन है

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया

12 comments:

M VERMA said...

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया है
==
बहुत सुन्दर भाव
बेहतरीन भाव्

Udan Tashtari said...

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया है

-वाह रवि, अद्भुत गीत सुनाया. बेहतरीन शिल्प.

संजीव गौतम said...

पूरा गीत ही बहुत शानदार है लेकिन ये
-बंधन में है मुक्ति समाहित, और मुक्ति में भी बंधन है
क्या बात है बहुत बढिया है. यूं ही लिखते रहो भाई.

Unknown said...

bahut khoob bhai........

गायक हूं मैं क्रांति-गीत का, शब्दों से अलख जगाता हूं
भर-भरकर गीतों में ज्वाला, जगती में प्रलय मचाता हूं
बोझ हटाता हूं माथे से, जीर्ण-शीर्ण सब संस्कारों के
स्वागत में फिर तरुणाई के, निज श्रद्धा-सुमन चढ़ाता हूं
____________yahi urja bani rahe......
badhaai !

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर रचनाएँ।
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!

कंचन सिंह चौहान said...

पर यदि बंधन स्नेहयुक्त हो, तो, हंसकर स्वीकार किया है

वाह..पूरी कविता का सार हो जैसे...!

रजनीगंधा फिल्म के शीर्षक गीत की पंक्तियाँ

मैं जब से उनक साथ बँधी,
ये भेद तभी जना मैने,
कितना सुख है बंधन में...!

इन्ही भावों पर हैं शायद और मुझे बहत पसंद भी....!

Smart Indian said...

बहुत सुन्दर रचना, रविकांत जी!

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत सुंदर गीति-रचना पांडे जी और हां पिछली पोस्ट में पाठशाला की तरह वाला शेर गजब है भाई वाह....

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत सुंदर गीति-रचना पांडे जी और हां पिछली पोस्ट में पाठशाला की तरह वाला शेर गजब है भाई वाह....

दिगम्बर नासवा said...

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया है

VAAH KYAA GEET HAI.... HREAY KO JHANJHODTA HUVA, ULAAS BHARTA LAJAWAAB GEET,,,,, BADHAAI HO RAVI JI IS GEET KE LIYE...

गौतम राजऋषि said...

रवि, शब्द छोटे पड़ेंगे जो कुछ कहना चाहुँ तारीफ़ में...
एक और "गोपालदास नीरज" उभरता दिखता है इस गीत में...

प्रकाश पाखी said...

हृदय यज्ञ-वेदी सा पावन, भावों की नित समिधाएँ हैं
आहुति देकर जड़ताओं की अर्थहीन को क्षार किया है

बहुत सुन्दर भावः भरी कविता...आनंद आगया..तारीफ़ तो गौतम भाई ने पहले ही कर दी है...हम कहते है सहमत है...