Friday, November 21, 2008

जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला

मानव मन की अजीब सी उलझनें हैं। जो पास ही है उसे खोजने कहीं और चल देता है। और इस तरह पल-पल उपलब्ध निधि से भी वंचित हो जाता है। इसी भाव को अभिव्यक्त करता हुआ एक गजल सुनें (साभार: यू ट्यूब)



बोल इस प्रकार हैं-
सर छुपाके मेरे दामन में खिजाओं ने कहा
हमें सताने दे गुलशन में बहार आई है....

जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला
सह्नेगुल छोड़ गया दिल मेरा पागल निकला...

जब उसे ढूँढने निकले तो निशां तक न मिला
दिल में मौजूद रहा आँख से ओझल निकला..
जब बहार....

इक मुलाकात थी जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे वो इक पल निकला...
जब बहार....

वो जो अफसाना-ए-गम सुनके हँसा करते थे
इतना रोये हैं कि सब आँख का काजल निकला...
जब बहार......

हम उसको ढूँढने निकले थे परीशान रहे
शहर तो शहर है जंगल भी न जंगल निकला...
जब बहार.....

9 comments:

गौतम राजऋषि said...

बहुत खूब रवि भाई...बड़े दिनों पर अते हो यार
वैसे ये रचना है किसकी ?

"अर्श" said...

वो जो अफसाना-ए-गम सुनके हँसा करते थे
इतना रोये हैं कि सब आँख का काजल निकला..


bahot khub likha hai aapne dhero badhai...

रविकांत पाण्डेय said...

गौतम जी, कोशिश करता हूँ नियमित होने की। रचनाकार के बारे में तो मैं भी अनजान हूँ। पता चले तो मुझे भी बतायें।

seema gupta said...

इक मुलाकात थी जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे वो इक पल निकला...
जब बहार....
" bhut sunder dil ko chu janey wale alfaj.... thanks for sharing this gazal with us."

Regards

शोभा said...

बहुत अच्छी गज़ल है।

योगेन्द्र मौदगिल said...

बढ़िया प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकारें मेरे भाई

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

बेहतरीन है भाई :)

नीरज गोस्वामी said...

रवि जी क्या कहूँ...? आनंद आ गया आज ये ग़ज़ल सुन कर कुछ शेर तो वाकई लाजवाब हैं.
आप मेरे ब्लॉग पर आए और ग़ज़ल पसंद की उसके लिए आप का तहे दिल से शुक्रिया.
स्नेह बनाये रखें.
नीरज

योगेन्द्र मौदगिल said...

कहां हो प्यारे..... हम तो घूम कर भी आ लिये..