Tuesday, December 23, 2008

नदी-नाव संयोग और आतंकवाद

लगभग एक माह की अनुपस्थिति के बाद फिर ब्लागिंग से जुड़ा हूँ। वो कहते हैं ना "नदी-नाव संयोग"-कभी नाव है तो नदी नहीं, नदी है तो नाव नहीं, नदी भी है नाव भी है पर पानी नहीं। ऐसे ही कुछ चक्कर में पड़ गया था। कभी लिखने का मूड नहीं तो कभी समय नहीं, सब सही हो तो कंप्यूटर गड़बड़। खैर ये सब कहानियाँ कभी फुर्सत में सुनाऊँगा फिलहाल देश की वर्त्तमान समस्या आतंकवाद पर अपने विचार रखता हूँ। आपने एक शेर जरूर सुना होगा जो हिरोशिमा, नागासाकी से संबंधित है। इसका जिक्र खासतौर पर इसलिये कर रहा हूँ कि मुंबई पर हुये हमले ने फिर से इसकी याद ताजा कर दी-

उजाड़े हैं गुलिस्ताँ तुमने जिन हाथों से दीवानों
अगर तुम चाहते तो इनसे वीराने संवर जाते

काश! ये ऊर्जा जो गलत दिशा में लगी हुई है, सृजन में लग जाये तो धरती स्वर्ग सरीखी हो जाये! जब मैं आतंकवाद की ओर देखता हूँ तों शिक्षा एवं वैज्ञानिक चिंतन के अभाव को इसकी जड़ में पाता हूँ। और अगर जड़ न कटे तो शाखाओं के कटने का कोई मतलब नहीं है। मैं "नष्टे मूले कुतो शाखा?" में भरोसा करता हूँ। दो-चार लोगों को मारकर आतंकवाद नष्ट नहीं किया जा सकता जब तक कि उन परिस्थितियों को नष्ट न किया जाये जो इन्हे जन्म देती हैं।

7 comments:

गौतम राजऋषि said...

स्वागत है रवि जी...कहां गुम थे-ये नहीं पूछूंगा क्योंकि गुरू जी के मुशायरे में आपने कुछ शायराना अंदाज में कुछ कहा तो था इस बारे में...

जो जिक्र छेड़ा है आपने,कुछ कहना उस पर ...बहुत ही करीब से झेला है ये सब...अपना-अपना पक्ष है "अगर जड़ न कटे तो शाखाओं के कटने का कोई मतलब नहीं है। मैं "नष्टे मूले कुतो शाखा?" में भरोसा करता " से जरुर सहमति जता सकता हूं

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत अच्छा िलखा है आपने । बधाई । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है- आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो पढें और कमेंट भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Prakash Badal said...

अगर ऊर्जा सही दिशा में लगे तो बात न बन जाए।
सही बात पर सुने कौन। सब के सब बहरे!

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप की बात सही है। लेकिन जब व्यवस्था अनियंत्रित हो तो किसी को सद्बुद्धि कैसे आ सकेगी?

कंचन सिंह चौहान said...

वाह क्या बात है..सत्य यही है कि हम अपनी ऊर्जा लगा किस तरफ रहे हैं..बात ये मायने रखती है....! बनाने मे या बिगाड़ने में

पंकज सुबीर said...

गौतम ने बिल्‍कुल सही नब्‍ज पकड़ी है रवि कि तुम गुम हुए और उत्‍तर दिया शायराना अंदाज में । खैर वापस लौटना हमेशा सुखद होता है । और हां ये बात भी कि ईश्‍वर ने काला, सफेद और धूसर तीन रंगों से सृष्टि को रचा है उसमें से सबसे अधिक धूसर रंग है । उसके बाद काले की मात्रा है और फिर आता है अल्‍प मात्रा में सफेद रंग । धूसर अर्थात हम आम लोग जो कुछ काले और कुछ सफेद हैं । काले अर्थात ये आतंकवादी या इनके जैसे और भी लोग । तीसरे सफेद लोग जो कभी कभी ही आते हैं कभी गांधी बनके कभी ईसा बनके तो कभी बुद्ध बनके । हम सब उस ईश्‍वर के द्वारा बनाये गये कम्‍प्‍यूटरगेम के पात्र ही तो हैं । उसने काला रंग इसीलिये बनाया है ताकि लोग सफेद की कद्र करना सीखें । किन्‍तु ये तो हम भी जानते हैं कि काला रंग इसलिये बढ़ रहा है क्‍योंकि हम सब जो धूसर रंग वाले हैं हमारे अंदर ही काले की मात्रा बढ़ रही है । खैर जब सफेद की बारी आयेगी तो हम देखेंगें कि ये काला रंग कहीं जाकर छुप गया है ।

पंकज सुबीर said...

गौतम ने बिल्‍कुल सही नब्‍ज पकड़ी है रवि कि तुम गुम हुए और उत्‍तर दिया शायराना अंदाज में । खैर वापस लौटना हमेशा सुखद होता है । और हां ये बात भी कि ईश्‍वर ने काला, सफेद और धूसर तीन रंगों से सृष्टि को रचा है उसमें से सबसे अधिक धूसर रंग है । उसके बाद काले की मात्रा है और फिर आता है अल्‍प मात्रा में सफेद रंग । धूसर अर्थात हम आम लोग जो कुछ काले और कुछ सफेद हैं । काले अर्थात ये आतंकवादी या इनके जैसे और भी लोग । तीसरे सफेद लोग जो कभी कभी ही आते हैं कभी गांधी बनके कभी ईसा बनके तो कभी बुद्ध बनके । हम सब उस ईश्‍वर के द्वारा बनाये गये कम्‍प्‍यूटरगेम के पात्र ही तो हैं । उसने काला रंग इसीलिये बनाया है ताकि लोग सफेद की कद्र करना सीखें । किन्‍तु ये तो हम भी जानते हैं कि काला रंग इसलिये बढ़ रहा है क्‍योंकि हम सब जो धूसर रंग वाले हैं हमारे अंदर ही काले की मात्रा बढ़ रही है । खैर जब सफेद की बारी आयेगी तो हम देखेंगें कि ये काला रंग कहीं जाकर छुप गया है ।