मानव मन की अजीब सी उलझनें हैं। जो पास ही है उसे खोजने कहीं और चल देता है। और इस तरह पल-पल उपलब्ध निधि से भी वंचित हो जाता है। इसी भाव को अभिव्यक्त करता हुआ एक गजल सुनें (साभार: यू ट्यूब)
बोल इस प्रकार हैं-
सर छुपाके मेरे दामन में खिजाओं ने कहा
हमें सताने दे गुलशन में बहार आई है....
जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला
सह्नेगुल छोड़ गया दिल मेरा पागल निकला...
जब उसे ढूँढने निकले तो निशां तक न मिला
दिल में मौजूद रहा आँख से ओझल निकला..
जब बहार....
इक मुलाकात थी जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे वो इक पल निकला...
जब बहार....
वो जो अफसाना-ए-गम सुनके हँसा करते थे
इतना रोये हैं कि सब आँख का काजल निकला...
जब बहार......
हम उसको ढूँढने निकले थे परीशान रहे
शहर तो शहर है जंगल भी न जंगल निकला...
जब बहार.....
Friday, November 21, 2008
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9 comments:
बहुत खूब रवि भाई...बड़े दिनों पर अते हो यार
वैसे ये रचना है किसकी ?
वो जो अफसाना-ए-गम सुनके हँसा करते थे
इतना रोये हैं कि सब आँख का काजल निकला..
bahot khub likha hai aapne dhero badhai...
गौतम जी, कोशिश करता हूँ नियमित होने की। रचनाकार के बारे में तो मैं भी अनजान हूँ। पता चले तो मुझे भी बतायें।
इक मुलाकात थी जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे वो इक पल निकला...
जब बहार....
" bhut sunder dil ko chu janey wale alfaj.... thanks for sharing this gazal with us."
Regards
बहुत अच्छी गज़ल है।
बढ़िया प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकारें मेरे भाई
बेहतरीन है भाई :)
रवि जी क्या कहूँ...? आनंद आ गया आज ये ग़ज़ल सुन कर कुछ शेर तो वाकई लाजवाब हैं.
आप मेरे ब्लॉग पर आए और ग़ज़ल पसंद की उसके लिए आप का तहे दिल से शुक्रिया.
स्नेह बनाये रखें.
नीरज
कहां हो प्यारे..... हम तो घूम कर भी आ लिये..
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