इधर कुछ दिनों से नया कुछ लिखा नहीं है। जब तक कुछ नया लिखूँ तब तक के लिए अपनी एक पुरानी रचना पाठकों के लिए पेश है-
निवेदन
मेरे शब्द प्रतीक्षारत हैं स्वर अपने दे जाना तुम
मन-मंदिर का तम मिट जाए ऐसा दीप जलाना तुम
नील गगन सी विस्तृत आँखें
सजते जिसमे स्वप्न-सितारे
मैं पीड़ा की महानिशा में
चक्रवाक ज्यों नदी किनारे
दग्ध-हृदय कुछ तो शीतल हो मिलन-सुधा बरसाना तुम
मेरे शब्द…………………………………………………
रिश्तों की शुष्क लता जी जाए
स्नेह-वारियुत सावन हो
छूते ही स्वर्ण बना दोगे
तुम तो पारस से पावन हो
मैं दूँ पत्थर को मूर्त्तरूप, मूर्त्ति में प्राण बिठाना तुम
मेरे शब्द……………………………………………
किताब मिली --शुक्रिया - 21
6 days ago
11 comments:
रिश्तों की शुष्क लता जी जाए
स्नेह-वारियुत सावन हो
छूते ही स्वर्ण बना दोगे
तुम तो पारस से पावन हो
मैं दूँ पत्थर को मूर्त्तरूप, मूर्त्ति में प्राण बिठाना तुम
मेरे शरवि जी,
आपकी कलम हमेशा प्रभावी रही है. गीत बहुत प्यारा है. इसे संगीत दिया जाए तो और अच्छा होगा. सस्नेह.ब्द……………………………………………
रविकांत जी आपकी ये कविता सुनी सुनी लगी
तुंरत हाइपर लिंक पर क्लिक किया और शंका समाधान हो गया
कुछ नया सुनने की अभिलाषा है
वीनस केसरी
मेरे शब्द प्रतीक्षारत हैं स्वर अपने दे जाना तुम
मन-मंदिर का तम मिट जाए ऐसा दीप जलाना तुम
--यही पूरी है अपने आप मे!!वाह भई, आनन्द आ गया!!
मेरे शब्द प्रतीक्षारत हैं स्वर अपने दे जाना तुम
मन-मंदिर का तम मिट जाए ऐसा दीप जलाना तुम
"Very beautiful and touching expression"
Regards
the words are really express the desire of individual
मैं पीड़ा की महानिशा में
चक्रवाक ज्यों नदी किनारे
.....क्या बात है रवि जी....इतने सुंदर शब्द और उतना ही सुंदर उनका संयोजन.
...दग्ध-हृदय कुछ तो शीतल हो मिलन-सुधा बरसाना तुम
हिंदी को जब तक साधक मिलते रहेंगें तब तक हिंदी जिन्दा रहेगी । हिंदी में लिखा और पढ़ा गया सराहा जाता है । अच्छा लिखा गया है बधाई
हृदय के भावों को बहुत खूबसूरती से सजाना है।
अच्छा गीत...
आपको बधाई..
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद रवि जी.गुरू जी ने तो शंका समाधान कर ही दिया है.हाँ मुझे जो बेंत पड़ी, उसकी कुछ न पुछिये.
आप ने बहुत दिनों से अपनी कोई रचना नहीं लगायी है...
ye jo naye satra ki khep aai hai Guru jI ki class me vaqai Lajavab hai...! bahut achvhhe Ravikanta ji... yu.n bhi mai murid ho chuki hu.n aap ki
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