विरह-मिलन के छंद सजाऊँ
या ज्वाला के गीत लिखूँ
स्वर बनूँ श्याम की मुरली का
अथवा विप्लव की रीत लिखूँ
या ज्वाला के गीत लिखूँ
स्वर बनूँ श्याम की मुरली का
अथवा विप्लव की रीत लिखूँ
आज माड़साब की संसदवाली गजल पढ़ने के बाद यह धारणा और भी बलवती हो गयी कि कवि वर्त्तमान की अनदेखी नहीं कर सकता है। मेरी एक अन्य कविता मैने उसको जीत लिखा की कुछ पंक्तियाँ देखें-
जब-जब अश्रु नयन में आए
मैने तब-तब गीत लिखा
*******************
कवि हुँ, लेखन का बस
इतना ही मैं मर्म समझता हूँ
अंजामो की फ़िक्र बिना
सच कहना धर्म समझता हूँ
उन्मादी खत के उत्तर में
मैने निश्छल प्रीत लिखा
तो आज एकबार फ़िर से वर्त्तमान को शब्द देने की आतुरता जोर पकड़ रही है। आगे तो वक्त ही बताएगा कि ऐसा कुछ लिख पाता हूँ या नहीं।
मैने तब-तब गीत लिखा
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कवि हुँ, लेखन का बस
इतना ही मैं मर्म समझता हूँ
अंजामो की फ़िक्र बिना
सच कहना धर्म समझता हूँ
उन्मादी खत के उत्तर में
मैने निश्छल प्रीत लिखा
4 comments:
विरह-मिलन के छंद सजाऊँ
या ज्वाला के गीत लिखूँ
स्वर बनूँ श्याम की मुरली का
अथवा विप्लव की रीत लिखूँ
--क्या बात है, बहुत खूब!!! वाह, रविकान्त जी!!
जब-जब अश्रु नयन में आए
मैने तब-तब गीत लिखा
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कवि हुँ, लेखन का बस
इतना ही मर्म समझता हूँ
अंजामो की फ़िक्र बिना
सच कहना धर्म समझता हूँ
उन्मादी खत के उत्तर में
मैने निश्छल प्रीत लिखा
बहुत अच्छा है बस ''इतना ही मर्म समझता हूं'' को '' इतना ही मैं मर्म समझता हूं '' कर लें वो जो खटका लग रहा है वो दूर हो जायेगा । अपनी कविता में ये ही भाव रखें आज जब हर तरु आग लगी है हम राग जयजयवंती नहीं गा सकते ।
विरह-मिलन के छंद सजाऊँ
या ज्वाला के गीत लिखूँ
स्वर बनूँ श्याम की मुरली का
अथवा विप्लव की रीत लिखूँ
बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।
वाह..
बहुत बढ़िया कहा आपने..
निरन्तरता बनाए रखें..
साधुवाद...
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