Sunday, September 14, 2008
जहाँ शब्द कम पड़ जाते हैं
यह हम सबका अनुभव है कि जब भावनाओं का सैलाब उमड़ता है, वाणी मूक हो जाती है। कितना भी कहने की कोशिश करो लगता है कुछ अनकहा रह गया। मैंने सुना है रवीन्द्रनाथ टैगोरे से उनके जीवन के आखिरी दिनों में किसी ने पूछा आप तो अत्यंत प्रसन्न होंगे क्योंकि आपने कितने ही अमर गीत रचे। रवीन्द्रनाथ ने जो उत्तर दिया वह विचारने योग्य है। उन्होने कहा, भीतर तो मेरे एक ही गीत गूँज रहा था जिसे गाने के मैने इतने सारे प्रयास किये। और सारा प्रयास निष्फल हो गया है क्योंकि वो अभी भी गाया न जा सका है। कई बार सोचता हूँ कि क्या दिल से हर कोई कवि/शायर नहीं है? हर कोई उसे शब्द नहीं दे पाता पर सबके भीतर गीत तो ऊठता ही है। साथ ही सोचता हूँ कि अगर शब्द जान-पहचान के न हुए तब भी के काव्य का आनंद कुछ कम हो पाता है? क्या सुबह-सुबह पक्षियों का मादक गीत अनजानी भाषा में होते हुए भी हमारे हृदय को तरंगित नहीं कर जाता? एक तितली फूलों के कान में जो गीत सुना जाती है क्या उसकी मिठास कम होती है?
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1 comment:
जिसके दिल में धड़कन होगी,
उसके दिल में गीत भी होगा.
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