वन बाग उपवन वाटिका सर कूप वापी सोहहिं
नर नाग सुर गंधर्व-कन्या रूप मुनि मन मोहहिं
नर नाग सुर गंधर्व-कन्या रूप मुनि मन मोहहिं
तो इस तरह से शुरू हुआ चार दिनों तक चलनेवाला हमारा वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम। पूरे कार्यक्रम के विस्तृत विवरण में तो मेरी खास दिलचस्पी नहीं है। हां, कुछ बातें जरूर साझा करने लायक हैं। सबसे पहले तो ये कि एक अपराध मुझसे होते-होते बचा या कहें कि परमात्मा ने बचा लिया। किसी विशेष कार्यक्रम में एक खास आत्मीय जन को बुलाने की प्रबल इच्छा थी पर किसी कारण से संभव न हो पाया। मन में एक पीड़ा का भाव था लेकिन कार्य्क्रम समापन के बाद मैंने ईश्वर का धन्यवाद दिया कि तू जो करता है ठीक ही करता है। मन में कई प्रश्न भी उठे -क्या कविता के लिये विषय का इतना अभाव हो गया है कि कवियों को अपनी समस्त प्रतिभा ये बताने में नष्ट करनी पड़े कि किसी अभिनेत्री ने विदेशी को चुंबन देकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया है। और बताने का ढंग भी ऐसा कि साफ समझ आता है कि उन्हे भारतीय संस्कृति से तो क्या लेना देना ? असल पीड़ा तो ये है कि इस उपहार से वे क्यों वंचित रह गय? उनका दर्द कि हम भारतीय क्या मर गये थे? अब चूंकि ये दर्द तो कई भारतीयों का है इसलिये तालियां तो खूब मिली बस कहीं कविता भर न मिली। ये तो सिर्फ़ एक उदाहरण है, पूरा कार्यक्रम सुनकर तो ऐसा लग रहा था जैसे कवि-सम्मेलन न होकर कोई घटिया कामेडी सिनेमा चल रहा हो। खैर मैं निंदा-रस का रसिक नहीं हूं इसलिये इस अध्याय को यहीं बंद करते हैं और मिलते हैं दो प्रतिभाओं से जिनमें काव्य का बीज अंकुर फोड़ रहा है। एक तो अमित जी हैं जिनके बारे में पहले भी बताया है आपको और दूसरे हैं भारत भूषण। अभी-अभी अमित ने किसी कारवाले को फूल बेचने की कोशिश करते बच्चे को लक्ष्य कर लिखा है-
मेरा क्या बाबूजी मैं तो बस सड़क का शोर हूं
आप ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं
कल बड़ा हो जाऊंगा तो शक करेंगे आप भी
आज बच्चा ही समझकर रात की रोटी खिलाएं
बेचता सड़कों पर बचपन कुछ व्यथित संवेदनाएं
आप ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं
कल बड़ा हो जाऊंगा तो शक करेंगे आप भी
आज बच्चा ही समझकर रात की रोटी खिलाएं
बेचता सड़कों पर बचपन कुछ व्यथित संवेदनाएं
जहां तक भारत-भूषण की बात है, ये बंधु इतना सुंदर गाते हैं कि आप प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकते। पिछले दिनों इन्होने अपना ताजा गीत सुनाया-
वह शून्य जिससे सृष्टि आती
मैं भी पाना चाहता हूं
आंसुओं में डूबकर
उस पार जाना चाहता हूं
मैं भी पाना चाहता हूं
आंसुओं में डूबकर
उस पार जाना चाहता हूं
इनसे मिलकर बस एक ही काम किया जा सकता था जो मैंने कर दिया। शीघ्र ही दोनों गुरूकुल में दाखिले की अर्जी देने वाले हैं। इनके बारे में बाकी बातें बाद में।
12 comments:
मेरा क्या बाबूजी मैं तो बस सड़क का शोर हूं
आप ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं
वाह बहुत सुंदर गजल...
बाकी आप ने बहुत सही लिखा, चलिये इसी तरह से दुनियादारी का भी पता चलता है....
धन्यवाद
दोनों में ही चिंगारी दिखाई दे रही है । तेवर के साथ बात कहने की हिम्म्त और सलीका दोनों में दिख रहा है । मेरी शुभकामनाएं ।
अर्जियां आयी भी नहीं और दाखिला हो गया ... अमित जी और भारत जी को मेरे तरफ से बहुत बहुत बधाईयाँ और शुभकामनाएं... गुरु वर ने सहमती जता दी यह बात खुशियों की है... और आप इतने दिन तक गायब ना हुआ करें .. वरना जुर्माना ठोक दी जायेगी... कुछ खास बात के लिए अग्रिम बधाईयाँ आपको मेरे और गुरुकुल के तमाम सदस्यों के तरफ से ...
आपका
अर्श
वह शून्य जिससे सृष्टि आती
मैं भी पाना चाहता हूं
आंसुओं में डूबकर
उस पार जाना चाहता हूं
सुन्दर
आभार आपका !!!
मेरा क्या बाबूजी मैं तो बस सड़क का शोर हूं
आप ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं
\ITNA ACHAA LIKHNE WAALON KO ARJIYA NAHI DENI PADHTI .... VO TO MAHAKTE HUVE FOOL HOTE HAIN JINKI KHUSHBOO UNKE AANE SE PAHLE HI AA JAATI HAI ....
बहुत नायाब तरीके से बात कही आपने. शुभकामनाएं.
रामराम.
बचपन बेचता है संवेदनाएं ...आंसुओं में डूबकर पार पाने की इच्छा ..
दोनों कवितायेँ लाजवाब है ...!!
अमित जी तो क्या कमाल लिखते हैं
दोनों ही जबरदस्त!!
मेरा क्या बाबूजी मैं तो बस सड़क का शोर हूं
आप ले जाएं इन्हे तनहाइओं में गुनगुनाएं
-छा गई यह पंक्तियाँ दिलो दिमाग पर.
Achchi lagi panktiyan jinhein aapne udhrit kiya. aapne kya padha kavi sammelan mein ye bataya nahin?
waah achhe vichaar.. humne bhi subeer sir ko kuch dedicate kiya hai..aapke madhyam se un tak pahunchana chhate hain.. agar wo bura na maane aur ahar ho sake to aap ye baat pahuncha de..
http://pupadhyay.blogspot.com/2009/10/blog-post_23.html
बहुत ही संक्षेप में निपटा दिया तुमने तो रवि...और अमित जी का परिचय तुमने पहले भी पूरा नहीं दिया था।
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