Monday, June 22, 2009

जगमग दीपों के उत्सव-सा उस दिन से है जीवन सारा

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कंटक-पथ से मुझे उठाकर तुमने गले लगाया जब से
चंदन की भीनी खुश्बू से भींग गया है तन-मन सारा

याद-सरस्वती का आना तो
उर में अपने-आप हुआ था
नयनों में थीं गंगा, यमुना
मिलन-मंत्र का जाप हुआ था
मन प्रयाग बन बैठा पावन
संधि-काल की उस बेला में
लगा डूबकी संगम में फ़िर

शमित हृदय का ताप हुआ था

शुभारंभ हो गया निमिष में तमस से ज्योति की यात्रा का
जगमग दीपों के उत्सव-सा उस दिन से है जीवन सारा

तुम बिन जीवन ऐसे, जैसे
व्यंजन के आगे हलंत है
भटकन कितनी ये मत पूछो
इच्छाओं का नहीं अंत है
रस का कोई स्रोत नहीं था
पतझड़ आंखें दिखा रहा था
अमर-दान तुमने दे डाला
हर मौसम लगता बसंत है

छाई है लाली यौवन की अधरों पर हर एक कली के
पावन संग तुम्हारा पाकर महक उठा है उपवन सारा

10 comments:

राज भाटिय़ा said...

कंटक-पथ से मुझे उठाकर तुमने गले लगाया जब से
चंदन की भीनी खुश्बू से भींग गया है तन-मन सारा
बहुत ही सुंदर कविता, अति सुंदर भाव धन्यवाद

मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे

Asha Joglekar said...

तुम बिन जीवन ऐसे, जैसे
व्यंजन के आगे हलंत है
क्या बात है । पूरी रचना ही बहुत सुंदर ।

Manish Kumar said...

कविता अच्छी लगी

कंचन सिंह चौहान said...

बहुत सुंदर रविकांत जी..! लय और भाव का जो तारतम्य, जो उच्चता आपकी कविताओं में है, वो कम ही मिलता है आजकल।

तुम बिन जीवन ऐसे, जैसे
व्यंजन के आगे हलंत है


बहुत ही अद्भुत उपमा है ये...! माँ सरस्वती की कृपा यूँ ही बनी रहे आप पर...!

नीरज गोस्वामी said...

रवि जी आपने अपने मन के भावों को इतने खूबसूरत शब्द दिए हैं की क्या कहूँ...वाह...मन गदगद हो गया इस रचना को पढ़ कर...बहुत बहुत बधाई...
नीरज

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन....

Mumukshh Ki Rachanain said...

रचना पढ़ लगा, सरस्वती जी स्वयं विराजमान है आपके मन मस्तिष्क में.

बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

शोभना चौरे said...

bhut achi rachna .

गौतम राजऋषि said...

रवि भाई....
हम चुप हैं। गीत की खूब्सूरती प्रशंसा के सारे बोल छीन ले गयी है। ये तो एकदम अनूठा अंदाज है।

दिगम्बर नासवा said...

सुन्दर मन को महकाती है आपकी रचना..............
prem ka saagar bahaati अच्छी रचना