(१)
हाथ पर हाथ धरे, बैठे-बैठे सोचते हैं
दैववश अच्छे दिन, सबके ही आते हैं
भाग्यवादी कायरों की, यही है पहचान कि
बाबा वो मलूकदास, मन को लुभाते हैं
जड़-बुद्धि जनता की, दिशाहीन सोच का जी
अवसरवादी नित, फायदा उठाते हैं
धर्म-धुरंधर और, वाहक परंपरा के
नागपंचमी तो हम, रोज ही मनाते हैं
(२)
जब-जब चलाई है, उसने बंदूकें तब
इस्तेमाल अपने ही, कंधे होते आये हैं
लूटपाट आगजनी, धूर्त्तता मक्कारी छल
सदा बड़े लोगों के ये, धंधे होते आये हैं
झूठ की दुकानदारी, बढ़ गई हर ओर
सच के व्यापार सब, मंदे होते आये हैं
आज भी हैं धृतराष्ट्र, सत्ता के आदर्श तभी
शासक सदैव यहां, अंधे होते आये हैं
दैववश अच्छे दिन, सबके ही आते हैं
भाग्यवादी कायरों की, यही है पहचान कि
बाबा वो मलूकदास, मन को लुभाते हैं
जड़-बुद्धि जनता की, दिशाहीन सोच का जी
अवसरवादी नित, फायदा उठाते हैं
धर्म-धुरंधर और, वाहक परंपरा के
नागपंचमी तो हम, रोज ही मनाते हैं
(२)
जब-जब चलाई है, उसने बंदूकें तब
इस्तेमाल अपने ही, कंधे होते आये हैं
लूटपाट आगजनी, धूर्त्तता मक्कारी छल
सदा बड़े लोगों के ये, धंधे होते आये हैं
झूठ की दुकानदारी, बढ़ गई हर ओर
सच के व्यापार सब, मंदे होते आये हैं
आज भी हैं धृतराष्ट्र, सत्ता के आदर्श तभी
शासक सदैव यहां, अंधे होते आये हैं
7 comments:
फुटकर भी गज़ब धांसूं है भाई!! आनन्द आ गया.
बहुत खूब!
दोनों छंद अच्छे पर अभी समय लगेगा.. शुभकामनाएं..
aaj ke yug ki sachchai ko in chhandon ke madhyam se ubharne ka shukriya
धर्म-धुरंधर और, वाहक परंपरा के
नागपंचमी तो हम, रोज ही मनाते हैं
bahut khoob Ravikanta Ji....!
बहुत खूब रवि जी...लिखते रहिये...
नीरज
बहुत अच्छा प्रयास है रवि जी...आपकी सोच की उड़ान हमेशा मुझे अचंभित करती है
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