Thursday, May 7, 2009

कितने टुकड़ों में मिरा देश है बंटा आखिर

तुलसी पूछते हैं "ऐसो को उदार जग मांहि"। मैं अगर उस समय होता तो गुरूदेव पंकज सुबीर जी का नाम ले देता। जो उदारतापूर्वक मेरी गज़लों को कहने लायक बनाते हैं। पढ़िये एक ताज़ी गज़ल-

फूल क्यूं इक भी नहीं शाख पे दिखता आखिर
कोई बतलाओ के गुलशन को हुआ क्‍या आखिर


प्रांत, भाषा तो कहीं जात, कहीं है मजहब

कितने टुकड़ों में मिरा देश है बंटा आखिर

हर तरफ़ आज तो सय्याद नज़र आते हैं

कैद पिंज़रे में हुई सोने की चिड़िया आखिर


जब भी मौका है मिला पीठ में खंजर भोंका
खूब यारों ने मिरे फर्ज निभाया आखिर


दिल यहां मिलते रहे तोड़ के सारे बंधन
रोक पाया न इन्हे रस्मों का पहरा आखिर

भूख की आग को कुर्सी वो समझती कैसे

खाली, इस ओर, उधर पेट भरा था आखिर


ठौर दुनिया में कोई भी न नज़र आया तो
हारकर रेत का घर एक बनाया आखिर
(२१२२ ११२२ ११२२ २२)

15 comments:

"अर्श" said...

वाह रवि भाई क्या कहर बरपा रहे हो मियाँ इतनी खुबसूरत ग़ज़ल कही के क्या कहूँ.. उफ्फ्फ सब लूट के ले गए भाई साहिब आप तो .. गुरु देव को सादर प्रणाम कहें ... और इस शे'र क्या कहने हालाकि सारे ही दाद के काबिल है मगर ....इस शे'र पे आपको दिल्ली लिख दी हमने..जनाब..
जब भी मौका है मिला पीठ में खंजर भोंका
खूब यारों ने मिरे फर्ज निभाया आखिर
कहर है जनाब कहर... बहोत बहोत बधाई आपको...इस नायाब ग़ज़ल के लिए..

आपका
अर्श

वीनस केसरी said...

खालिस रविकांत पाण्डेय स्टाइल की गजल है
बहुत अच्छी लगी
ये शेर ख़ास पसंद आये
जब भी मौका है मिला पीठ में खंजर भोंका
खूब यारों ने मिरे फर्ज निभाया आखिर

भूख की आग को कुर्सी वो समझती कैसे
खाली, इस ओर, उधर पेट भरा था आखिर
ये ही तेवर बनाये रखिये

आपका वीनस केसरी

Vinay said...

यह ग़ज़ल तो दिल में घर कर गयी

---
चाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलें

गौतम राजऋषि said...

खाली, इस ओर, उधर पेट भरा था आखिर

इस मिस्‍रे पे तो क्या कहूं रवि भाई...उफ़्फ़्फ़्फ़

एक और बेहतरीन ग़ज़ल आपकी कलम से

Udan Tashtari said...

गजब कर दिया भाई!!

जब भी मौका है मिला पीठ में खंजर भोंका
खूब यारों ने मिरे फर्ज निभाया आखिर


-बहुत खूब कहा!!

Urmi said...

आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत खूब लिखा है आपने! लाजवाब! बेहतरीन ग़ज़ल लिखने के लिए बधाई!

नीरज गोस्वामी said...

प्रांत, भाषा तो कहीं जात, कहीं है मजहब
कितने टुकड़ों में मिरा देश है बंटा आखिर
वाह....बेहतरीन....आप की शायरी में ग़ज़ब का निखार आ रहा है...लिखते रहें...
नीरज

Manish Kumar said...

Waise to poori ghazal sarahneey hai par ye sher khaas pasand aaya.

भूख की आग को कुर्सी वो समझती कैसे
खाली, इस ओर, उधर पेट भरा था आखिर

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत बेहतरीन शेर निकाले हैं भाई... बहुत बधाई..

हरकीरत ' हीर' said...

फूल क्यूं इक भी नहीं शाख पे दिखता आखिर
कोई बतलाओ के गुलशन को हुआ क्‍या आखिर

वाह...वाह......!!

दिल यहां मिलते रहे तोड़ के सारे बंधन
रोक पाया न इन्हे रस्मों का पहरा आखिर


बहुत खूब.....!!ग़ज़ब का लिख रहें...हैं ...!!

आलोक साहिल said...

भाई जी, पहला ही शेर इतना उम्दा रहा की पढता ही चला गया...मजा आ गया..
एक गजल में जिस रवानी की दरकार हम रखते हैं...वो मिली...बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल"

Mumukshh Ki Rachanain said...

जब भी मौका है मिला पीठ में खंजर भोंका
खूब यारों ने मिरे फर्ज निभाया आखिर

शेर पढ़ कर आर्श्चय हो रहा कि भाई पंकज जी ने ऐसा कारनामा कब कर डाला !!!!!!!!!!!!!!!!

कहीं न कहीं कुछ गलत है.....................

भाई नेकी कर दरिया में डाल तो नहीं..........

खैर ये तो हुई मजाक की बातें, कुल मिला कर ग़ज़ल बहुत सुन्दर बन पडी है, पढने में मज़ा आ गया, भाई आशीर्वाद भी तो पंकज भाई का है. सोने में सुहागा तो होना ही था.

आभार

चन्द्र मोहन गुप्त

वीनस केसरी said...

रवि भाई आपको जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाये
रात ज्यादा हो गई है नहीं तो फोन करने का विचार था
वीनस केसरी

गौतम राजऋषि said...

जन्म-दिन की हार्दिक बधाई रवि जी

और वो बहर यकिनन हज़ज की ही प्रजाति है। आप सही कह रहे थे।

महावीर said...

आज पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं। बहुत ख़ूबसूरत लगा। आपकी रचनाएं वाकई क़ाबिले तारीफ़
हैं। आरंभ में पंकज जी के विषय में जो कहा है, वह सही कहा है।
'कितने टुकड़ों में मिरा देश है बंटा आखिर' के सातों अशा'र सरस होने से सहज ही आत्मसात हो जाते हैं और शब्दों में अर्थपूर्ण प्राणों का संचार करने में एक सफल ग़ज़ल है। बधाई स्वीकारें।
महावीर शर्मा