यूं घाव बेहिसाब दिये, पर दवा नहीं
फिर भी मुझे ज़माने से कोई गिला नहीं
ये धूप पांव रोक ही लेती मिरे अगर
बन छांव साथ चलती जो मां की दुआ नहीं
कोई खुशी नसीब उसे कब हुई भला
औरों की जो खुशी का कभी सोचता नहीं
है मौज बस लुटेरों की चोरों की आजकल
उसकी हजार आंखें हैं क्यूं देखता नहीं
उसको भी रहबरी का लगा शौक देखिये
वो शख्स जिसको अपना ही कुछ भी पता नहीं
पहचानिये किसी को फकत उसके कर्म से
होता कोई जनम से ही अच्छा बुरा नहीं
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
होता जहां है सबके मुकद्दर का फैसला
उसकी गली को कौन भला जानता नहीं
रोशन उसी का नाम है इतिहास में हुआ
मर मिट गया जो आन पे लेकिन झुका नहीं
नजरें मिलीं जो उनसे तो ऐसा लगा मुझे
मैं आ गया मुकाम पे जबके चला नहीं
रवि ढूंढना तू बाद में औरों की खामियां
तू मन में पहले अपने ही क्यों ढूंढता नहीं
(बहर-मुज़ारे मुसमन अखरब मकफ़ूफ़ महजूफ़,
वज़न-२२१ २१२१ १२२१ २१२)
15 comments:
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
-- चलिए, अभी तक अच्छी बात है.
रवि भाई क्या खूब कही आपने ये ग़ज़ल बेहद उम्दा बहोत खूब कुछ ऐसे अशआर है जो अपने आप में परिपूर्ण है ....
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
अब इस शे'र के ही क्या कहने बहोत ही शानदार ग़ज़ल कही आपने और जहां गुरु देव का आशीर्वाद हो तो क्या कहने गुरु देव को सादर चरण स्पर्श जरुर कहे,,..
अर्श
बहुत बढिया गज़ल है।बधाई
नजरें मिलीं जो उनसे तो ऐसा लगा मुझे
मैं आ गया मुकाम पे जबके चला नहीं
वाह क्या बात है रवि भाई हर शेर अद्भुत है। किसी एक को पसंद करना मुश्किल है। पढकर दिल खुश हो गया।
यूँ तो पूरी गज़ल के क्या कहने..गजब की बन पड़ी है///
ये शेर तो बस लूट ले गया समझिये:
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
-बहुत खूब कहा!!
रवि भाई आख़री चार शेर दिल में उतर गए
मेरे जैसे अनाडी के समझने के लिए आखिर में रुक्न भी लिख दिया करे कृपा होगी
आपका वीनस केसरी
गज़ब बनी है ...वाह
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
कोई खुशी नसीब उसे कब हुई भला
औरों की जो खुशी का कभी सोचता नहीं
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
वाह रवि जी वाह....क्या खूब शेर कहें हैं...लाजवाब ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई...
नीरज
har sher lajawab hai.
waah waah pandeyji...tussi to chha gaye...mar jawan gudd kha ke....kya likha hai!!!!
वाह रवि जी वाह...
एक मुश्किल बहर पर इतनी प्यारी ग़ज़ल कि होश उड़ गये..
"होता जहां है सबके मुकद्दर का फैसला"
और
"क़ीमत यहां पे आज ’ वाले दोनों शेर खूब भाये लेकिन "नजरें मिलीं जो उनसे तो ऐसा लगा मुझे
मैं आ गया मुकाम पे जबके चला नहीं" में छुपे अद्भुत इश्क की ऊँचाइयां ने तो जान ही निकाल दी है...हायsssssssss
बहुत बधाई
कुछ बेहतरीन शे'र.........!!
कोई खुशी नसीब उसे कब हुई भला
औरों की जो खुशी का कभी सोचता नहीं
लाजवाब .....!!
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
बहूत खूब.......!!
रोशन उसी का नाम है इतिहास में हुआ
मर मिट गया जो आन पे लेकिन झुका नहीं
इस शे'र पे तो सलाम है आपको.....!!
पहचानिये किसी को फकत उसके कर्म से
होता कोई जनम से ही अच्छा बुरा नहीं
sahi kaha ..bandhuwar
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
bas isi baat ka atmabal zindagi ki gadi ko kheenchta rahta hai
sarthak prayas raha aapka.
रवि जी,
लाजवाब .....!!
गुरुदेव का आशीर्वाद रहे तो ग़ज़ल के निखार खुद-ब-खूद बोलने लगते हैं..........
क़ीमत यहां पे आज हर इक चीज़ की लगी
मुझको यही है फख्र मैं अब तक बिका नहीं
बेहतरीन प्रस्तुति.
चन्द्र मोहन गुप्त
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