Tuesday, November 4, 2008

तुझको अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है

तुझको अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है


कोकिला
के कंठ से नित सुर तुम्हारा बोलता है
मन
के कोने में छिपे सब भेद गहरे खोलता है
उसके
पैरों में नर्त्तन जिसने आहट सुनी तुम्हारी
जिसने
पी मदिरा नयन की मस्त अबतक डोलता है


तुमसे
मिलकर खु हूँ इतना बाकी अब अरमान कहाँ है
तुझको
अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है


बिन
तुम्हारे साथ के अब है अधूरी हर कहानी
सुख
सभी ऐसे हैं जैसे रेत में दिखता है पानी
अल्पकालिक
भी मिलन प्राणों मे नवरस घोलता
मर्त्य
है संसार तो क्या प्रेम है शाश्वत निशानी


विरह
-ज्वारग्रस्त मनुज, औषधि प्रेम समान कहाँ है
तुझको
अपनी कथा सुनाऊँ ऐसा तू अनजान कहाँ है

6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन बहता हुआ गीत-संपूर्ण लय और प्रवाह में. आनन्द आ गया, गुनगुनाऐ भी संग संग. :)

seema gupta said...

बिन तुम्हारे साथ के अब है अधूरी हर कहानी
सुख सभी ऐसे हैं जैसे रेत में दिखता है पानी
अल्पकालिक भी मिलन प्राणों मे नवरस घोलता
मर्त्य है संसार तो क्या प्रेम है शाश्वत निशानी
" what a beautiful song with a sweat rythm and imaginary words. liked it"

Regards

गौतम राजऋषि said...

क्या बात है रवि जी...इतने दिनों बाद दिखे हो और छा गये इस गीत से.बहुत सुंदर.मजा आ गया.
और मेरी गज़ल की तारिफ़ का शुक्रिया

Smart Indian said...

इतनी खूबसूरत रचना के लिए बधाई स्वीकारें!

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah..wa
bhai
achhi rachna ke liye badhai

गौतम राजऋषि said...

कहाँ हो?