इधर कुछ व्यस्त हूं, तब तक एक पुराना गीत पढ़िये और अपनी राय बताइये-
पागल मन को संकल्पों से करता कितनी बार नियंत्रित
जबकि तुम्हारी एक झलक ही मुझको फिर आतुर कर जाती
बैठ झील के कभी किनारे
छेड़ दिया जो वीणा का स्वर
विश्वामित्र तपस्या भूले
भूल गये सब योग मछेंदर
चितवन के शर से बिंध-बिंध कर संन्यासी गृहस्थ हुए जब
साधारण फिर मनुज मात्र की कोई इच्छा क्या कर पाती
लौटा पनघट से निराश हो
जब हर कोशिश करनेवाला
एक बूंद से जाने कैसे
तुमने पूरा घट भर डाला
मैं एकाकी मरणशील था मृदुल-स्पर्श से पहले-पहले
नेह तुम्हारा साथ न देता तो बुझ जाती जीवन-बाती
10 comments:
चितवन के शर से बिंध-बिंध कर संन्यासी गृहस्थ हुए जब
साधारण फिर मनुज मात्र की कोई इच्छा क्या कर पाती
इस लाइन से खासा रिश्ता है आपका ... बहुत सुन्दर गीत ... शुध्ह हिंदी के शब्दों का इस्तेमाल आप जैसे करते हैं , उसके लिए हमारे पास शब्द नहीं होते .... बधाई ...
अर्श
चितवन के शर से बिंध-बिंध कर संन्यासी गृहस्थ हुए जब
साधारण फिर मनुज मात्र की कोई इच्छा क्या कर पाती
मैं एकाकी मरणशील था मृदुल-स्पर्श से पहले-पहले
नेह तुम्हारा साथ न देता तो बुझ जाती जीवन-बाती
बहुत उम्दा
वाह! बहुत सुन्दर!
लौटा पनघट से निराश हो
जब हर कोशिश करनेवाला
एक बूंद से जाने कैसे
तुमने पूरा घट भर डाला
मैं एकाकी मरणशील था मृदुल-स्पर्श से पहले-पहले
नेह तुम्हारा साथ न देता तो बुझ जाती जीवन-बाती
वाह ! हर बार आप कुछ विशेष ही करते हैं..हिंदी के शुद्धतम रूप के दर्शन कराता यह गीत बहुत पसंद आया..
ऐसे गीत बस यहीं पढ़ने को मिलते हैं, यहीं पढ़ने आता हूँ !
गीत का मनोहारी रूप दृश्य होता है यहां ! आभार प्रस्तुति के लिए !
बहुत दिनों के बाद आना हुआ आपके ब्लोग पर। अच्छा लगा पढकर। और हाँ प्यारे से नन्हें बच्चे को खूब सारा प्यार।
बहुत दिनों के बाद आना हुआ आपके ब्लोग पर। अच्छा लगा पढकर। और हाँ प्यारे से नन्हें बच्चे को खूब सारा प्यार।
भूल गये सब योग मछेंदर....
gorakh ke guru..hein na ....
must kawita likhi hai ..saab
"मैं एकाकी मरणशील था मृदुल-स्पर्श से पहले-पहले"
...अहा! इसको जो काश तुम धुन में भी सुना देते!
मैं एकाकी मरणशील था मृदुल-स्पर्श से पहले-पहले
नेह तुम्हारा साथ न देता तो बुझ जाती जीवन-बाती
Oh ! Wah! Mai pahli baar aayi hun..aur ye khazana dikh gaya!
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