खून-पसीना खेतों में तो जनता रोज बहाती है
लेकिन किसके हल के नीचे बोलो सीता आती है
षडयंत्रों का खेल रचाता घात लगाकर झूठ मगर
सच्चाई फिर भी लाक्षागृह से जिंदा बच जाती है
बेशर्मी जब-जब बढ़ती है मर्यादा की सीमा से
शूर्पणखा तब- तब लक्ष्मण के हाथों नाक गंवाती है
घर से निकलो तो हिम्मत की छतरी भी संग ले लेना
हिंसा की बूंदें बरसेंगीं, मौसम ये बरसाती है
अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे
कोई मुंबइ वाला है तो कोई यहां गुजराती है
सदियों की सब धूल हटाकर बंद कपाटें खोलीं तो
सुब्ह सवेरे अब खिड़की पर आकर धूप जगाती है
कागज़ और कलम के दम पर मुश्किल तुझको खत लिखना
पुरवाई के हाथ पठाई खुश्बू की ये पाती है
सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है
लेकिन किसके हल के नीचे बोलो सीता आती है
षडयंत्रों का खेल रचाता घात लगाकर झूठ मगर
सच्चाई फिर भी लाक्षागृह से जिंदा बच जाती है
बेशर्मी जब-जब बढ़ती है मर्यादा की सीमा से
शूर्पणखा तब- तब लक्ष्मण के हाथों नाक गंवाती है
घर से निकलो तो हिम्मत की छतरी भी संग ले लेना
हिंसा की बूंदें बरसेंगीं, मौसम ये बरसाती है
अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे
कोई मुंबइ वाला है तो कोई यहां गुजराती है
सदियों की सब धूल हटाकर बंद कपाटें खोलीं तो
सुब्ह सवेरे अब खिड़की पर आकर धूप जगाती है
कागज़ और कलम के दम पर मुश्किल तुझको खत लिखना
पुरवाई के हाथ पठाई खुश्बू की ये पाती है
सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है
15 comments:
सुंदर ग़ज़ल आज के वक्त की सच्चाई बयाँ करती एक बढ़िया ग़ज़ल..धन्यवाद भाई!!
Waah !!! Bahut bahut sundar rachna...
Sabhi arthpoorn saarthak sher dil ko chhoo lete hain...
सदियों की सब धूल हटाकर बंद कपाटें खोलीं तो
सुब्ह सवेरे अब खिड़की पर आकर धूप जगाती है
सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है
पूरी गजल तारीफ़ के काबिल है,और इन दो शेरोन पर लाखों दाद!
बहुत बेहतरीन रचना.
रामराम.
रवि जी ......... आपका लिखा हर शेर इतिहास से लेकर आज तक की गाथा कह रहा है ........ सार्थक और सजीव लेखन इसी को कहते हैं ........... पूरी ग़ज़ल जीवन दर्शन है .........
ऐसे तो नही आपको गुरु जी का विशेष आशिर्वाद मिलता.. आप में जो है वो शायद हम में नही है।
पौराणिक कथानकों यूँ प्रयोग मुझे हमेशा ही भाता है, क्योंकि जाने क्यों मुझे लगता है कि बस पात्र और रहन सहन बदलता है बाकी इतिहास वही है।
बहुत ही अच्छी गज़ल...! और हाँ चूँकि मै शॉर्टकट बात कर भी नही पाती इसलिये ये लंबी बहरे भी मुझे बहुत भाती हैं।
खून-पसीना खेतों में तो जनता रोज बहाती है
लेकिन किसके हल के नीचे बोलो सीता आती है
षडयंत्रों का खेल रचाता घात लगाकर झूठ मगर
सच्चाई फिर भी लाक्षागृह से जिंदा बच जाती है
bahut khoob
बेशर्मी जब-जब बढ़ती है मर्यादा की सीमा से
शूर्पणखा तब- तब लक्ष्मण के हाथों नाक गंवाती है
kya baat kahi hai
घर से निकलो तो हिम्मत की छतरी भी संग ले लेना
हिंसा की बूंदें बरसेंगीं, मौसम ये बरसाती है
bahut gahri baat
अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे
कोई मुंबइ वाला है तो कोई यहां गुजराती है
is sher par to bas.............
सदियों की सब धूल हटाकर बंद कपाटें खोलीं तो
सुब्ह सवेरे अब खिड़की पर आकर धूप जगाती है
ahaaaaaaaa kamaal ka sher
कागज़ और कलम के दम पर मुश्किल तुझको खत लिखना
पुरवाई के हाथ पठाई खुश्बू की ये पाती है
waah waah
सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है
bahut hi kboosurat gazal
बहुत सुंदर रचना.
धन्यवाद
... सुन्दर रचना !!!!!
बहुत सुन्दर. वसन्तपन्चमी की शुभकामनायें.
सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है
आह!! वाह!! बहुत खूब! क्या बात है रवि भाई!
अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे
कोई मुंबइ वाला है तो कोई यहां गुजराती है..
बहुत खूब रविकांत जी, ये आपक अंदाज़ है ग़ज़ल में.
आपकी बात ही निराली है, इस तरह के शब्द कहाँ से लाते हो आप
पुरानी बातों को क्या खूब अंदाज़ से सवार है और नया आकार दिया है
आपने... बसंत पंचमी पर ढेरो बधाई...
आपका
अर्श
हर एक शेर लाजवाब है । इस एक का तो क्या कहना -
"कागज़ और कलम के दम पर मुश्किल तुझको खत लिखना
पुरवाई के हाथ पठाई खुश्बू की ये पाती है
"
आभार ।
अरे जीयो रवि मियां...जीयो....
क्या ग़ज़ल बुनी है साहबजादे...मजा आ गया। नये बिम्ब, नया अंदाज, मिथकों का समावेश, प्रेम की छुअन..सब कुछ बराबर-बराबर मात्रा में।
मतले के लिये सैल्युट...
Post a Comment