उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में
एक तरफ मैं बातें करता बरछी, तीर, कटारों की
काली का करवाल, साथ में बहते शोणित-धारों की
क्षार-क्षार करने को आतुर दहक रहे अंगारों की
टूट-टूट कर पल-पल गिरते सत्ता के दीवारों की
दूजे पल मैं राह दिखाता भटक रहे नादानों को
सत्य, अहिंसा और प्रेम की मंजिल मेरे गीतों में
कभी प्रीत की डोर बांधती, तो कभी भौंरा आजाद
कभी काल की कुटिल हास है कभी देवता का प्रसाद
बैठ कुटी में कभी लिखा है साग औ’ रोटी का स्वाद
कभी कलम का साथ निभाती है विविध व्यंजन की याद
है एक ओर विज्ञान-जनित नगरों का वैभव विशाल
वहीं खेत औ’ खलिहानों की मुश्किल मेरे गीतों में
शंखनाद कर स्वप्न तोड़ता बरबस तुम्हे जगाता हूं
नयनों में आंसू भर-भर कर रोता और रुलाता हूं
रास-रंग सब छोड़ प्यास के दारुण गीत सुनाता हूं
पर प्यासे अधरों की खातिर ये भी खेल रचाता हूं
जाम, सुराही, साकीबाला, पीनेवालों की टोली
सजी हुई है पूरी-पूरी महफिल मेरे गीतों में
22 comments:
्धन्यवाद इस सुंदर कविता के लिये
आपकी सुन्दर रचना के लिऍ बधाई।
आप को हिदी दिवस पर हार्दीक शुभकामनाऍ।
आभार
पहेली - 7 का हल, श्री रतन सिंहजी शेखावतजी का परिचय
हॉ मै हिदी हू भारत माता की बिन्दी हू
हिंदी दिवस है मै दकियानूसी वाली बात नहीं करुगा
अच्छी रचना है .. ब्लाग जगत में कल से ही हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
बेहद खूबसूरत रचना । आभार ।
अद्भुत रचना है..गाकर सुनाते तो आनन्द आ जाता.
यूँ भी कम आनन्दित नहीं हो रहे हैं. बधाई.
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.
जय हिन्दी!
रवि जी इस विलक्षण रचना के लिए मेरी दिल से बधाई स्वीकार करें...शब्द चयन और भाव दोनों उच्च कोटि के हैं...वाह..
नीरज
हिंदी दिवस की शुभ कामनाएं ......... बहूत ही सुन्दर गीत है रवि जी .....
सुन्दर रचना.
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
शंखनाद कर स्वप्न तोड़ता बरबस तुम्हे जगाता हूं
नयनों में आंसू भर-भर कर रोता और रुलाता हूं
रास-रंग सब छोड़ प्यास के दारुण गीत सुनाता हूं
पर प्यासे अधरों की खातिर ये भी खेल रचाता हूं
बहूत ही सुन्दर !
aap ka darshan hamesha bhata hai...!
बहुत लाजवाब रचना. बधाई.
रामराम.
कभी प्रीत की डोर बांधती, तो कभी भौंरा आजाद
यह पंक्ति शायद टाइपिंग में गलत हो गयी
लेकिन मैंने इस तरह पढ़ा
कभी प्रीत की डोर बांधती, कभी कभी भौंरा आजाद
या
कभी प्रीत की डोर बांधती, और कभी भौंरा आजाद
बहरहाल बहुत सुंदर रचना
बधाई मेरे भाई
सही यही संतुलन आगे भी आपके गीतों में दिखता रहे आपकी लेखनी से ऍसी ही आशा है।
्रवी कान्त जी लाजवाब रचना है बधाई
दूजे पल मैं राह दिखाता भटक रहे नादानों को
bahut achcha geet..
दूजे पल मैं राह दिखाता भटक रहे नादानों को
सत्य, अहिंसा और प्रेम की मंजिल मेरे गीतों में
कभी प्रीत की डोर बांधती, तो कभी भौंरा आजाद
कभी काल की कुटिल हास है कभी देवता का प्रसाद
बैठ कुटी में कभी लिखा है साग औ’ रोटी का स्वाद
कभी कलम का साथ निभाती है विविध व्यंजन की
भावो को जादूगरी भरे शब्दों से अभिव्यक्त किया है...बधाई स्वीकार करें..
उर-सागर के मंथन का है हासिल मेरे गीतों में
विष और अमृत दोनों ही हैं शामिल मेरे गीतों में
बहुत अच्छा गीत हुआ है रवि भाई. निर्वाह शानदार है.
एक तरफ मैं बातें करता बरछी, तीर, कटारों की
काली का करवाल, साथ में बहते शोणित-धारों की
क्षार-क्षार करने को आतुर दहक रहे अंगारों की
टूट-टूट कर पल-पल गिरते सत्ता के दीवारों की
bahut khoob...aap acha likhte hain
बस इक "आह"....!
क्या लिखते हो रवि!
उम्दा!! आपने तो कविवर श्याम नारायण पाण्डेय की याद दिला दी.
इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.
यही जीवन की सच्चाई है भाई। आपने इसे खरा खरा बयान किया, इसके लिए बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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