Wednesday, September 2, 2009

चली हवाएं परिवर्त्तन की....

लीजिये एक और कविता पेश है, बिना किसी खास भूमिका के। उम्मीद है आपको पसंद आयेगी।

नींव डोलती राजभवन की
चली हवाएं परिवर्त्तन की
सहमी छाती नील-गगन की
बेला फिर शिव के नर्त्तन की

यह इंद्रजाल अब टूटेगा
बंधन से मानव छूटेगा
हां, फूल नया खिलने को है
धरती, नभ से मिलने को है


तू गीत क्रांति के गाने दे
जग का सुख-चैन मिटाने दे
फसलों की बात भुलाने दे
खेतों को आग उगाने दे


आंसू का मोल चुकाना है
पिछ्ड़ों को आगे लाना है

देखो यह समय बदलता है
अब सूरज नया निकलता है

सत्ता का जोर न रोकेगा
तोपों का शोर न रोकेगा

बादल घनघोर न रोकेगा
झंझा झकझोर न रोकेगा

यह रथ बढ़ता ही जायेगा
सीढ़ी चढ़ता ही जायेगा
मैं पूजन थाल सजाऊंगा
माथे पर तिलक लगाऊंगा

फिर नित-नूतन मंगल होगा
निश्चित ही सुंदर कल होगा

12 comments:

वीनस केसरी said...

नींव डोलती राजभवन की
चली हवाएं परिवर्त्तन की

वाह क्या बात है

रवि भाई बहुत सुन्दर कविता पढ़वाई एक सांस में पूरी कविता पढी

संभावनाओं का द्वार खोलती ओजमय कविता पढ़वाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

वीनस केसरी

Udan Tashtari said...

वाह!! इस तरफ भी..बहुत उम्दा भाव उभरे हैं.

Unknown said...

वाह !

निर्मला कपिला said...

नींव डोलती राजभवन की
चली हवाएं परिवर्त्तन की
सहमी छाती नील-गगन की
बेला फिर शिव के नर्त्तन की
ba
हुत सार्गर्भित और सुन्दर रचना है
फिर नित-नूतन मंगल होगा
निश्चित ही सुंदर कल होगा
बहुत सकारात्मक अभिव्यक्ति है बौत बहुत बधाई

कंचन सिंह चौहान said...

laybaddhata sundar hai kavita ki

दिगम्बर नासवा said...

यह रथ बढ़ता ही जायेगा
सीढ़ी चढ़ता ही जायेगा
मैं पूजन थाल सजाऊंगा
माथे पर तिलक लगाऊंगा

SAARGARBHIT ....... OJASVI KAVITA HAI AAPKI ..... AASHAA BHARI SOCH LIYE .... KAHAAL KA LIKHA HAI RAVI JI ....

राज भाटिय़ा said...

नींव डोलती राजभवन की
चली हवाएं परिवर्त्तन की
सहमी छाती नील-गगन की
बेला फिर शिव के नर्त्तन की

बहुत सुंदर भाव लिये है आप की यह कविता.
धन्यवाद

Mishra Pankaj said...

बहूत सुन्दर रचना पाण्डेय जी .
पंकज

Manish Kumar said...

sahaj shabdon mein alakh jagane wala geet..

संजीव गौतम said...

नींव डोलती राजभवन की
चली हवाएं परिवर्त्तन की
सहमी छाती नील-गगन की
बेला फिर शिव के नर्त्तन की
बहुत बढिया रवि भाई. ऐसा लग रहा है जैसे दिनकर जी बोल रहे हों.
एम0ए0 में पढी हुई एक कविता याद हो आयी-
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
बहुत-बहुत बधाई

Creative Manch said...

तू गीत क्रांति के गाने दे
जग का सुख-चैन मिटाने दे
फसलों की बात भुलाने दे
खेतों को आग उगाने दे

वाह ...वाह ...वाह
बहुत बढिया ,,, बहूत सुन्दर रचना
बधाई


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गौतम राजऋषि said...

देर से आ रहा हूँ रवि...बस कुछ उलझने थीं!

एक सुंदर ओज वाली कविता...सचमुच दिनकर की याद दिलाती हुई।

तुममें बात है!