Wednesday, December 24, 2008

कातिल हमको समझाते हैं


(कहते हैं भगवान कृष्ण के छूने से कुब्जा का कूबड़ ठीक हो गया था। लड़खड़ाती हुई ये गजल गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी के छूने से ठीक होकर कहने लायक हो पाई है।)

कातिल हमको समझाते हैं हथियारों की बात नरिये

आग लगानेवाले कहते अंगारों की बात न करिये

बिन दीपक कैसी दीवाली ईद बिना सेंवइयों के क्‍या
ठंडा है चूल्‍हा दो दिन से त्‍यौहारों की बात न करिये

पहना कर सच के कपड़े ये झूठ परोसा करते हैं बस

हमको सब मालूम है हमसे अखबारों की बात न करिये


सूरज मुट्ठी में रखते हैं जब चाहे नीलाम करें ये
गिरवी है आकाश यहाँ चंदा तारों की बात न करिये

बम फटते हों आगजनी हो या फ़िर दंगो की बातें हों
लंबी ताने सोयें साहब, हुंकारों की बात न करिये


निश्छल प्रेम जहाँ मिलता है उस दर पे सज़दे करता हूँ

मंदिर मस्जिद गिरिजाघर इन बाजारों की बात रिये

तेरा मेरा इसका उसका जीना है क्या सिर्फ़ यही बस

दिल से दिल को दूर करे जो दीवारों की बात न करिये


Tuesday, December 23, 2008

नदी-नाव संयोग और आतंकवाद

लगभग एक माह की अनुपस्थिति के बाद फिर ब्लागिंग से जुड़ा हूँ। वो कहते हैं ना "नदी-नाव संयोग"-कभी नाव है तो नदी नहीं, नदी है तो नाव नहीं, नदी भी है नाव भी है पर पानी नहीं। ऐसे ही कुछ चक्कर में पड़ गया था। कभी लिखने का मूड नहीं तो कभी समय नहीं, सब सही हो तो कंप्यूटर गड़बड़। खैर ये सब कहानियाँ कभी फुर्सत में सुनाऊँगा फिलहाल देश की वर्त्तमान समस्या आतंकवाद पर अपने विचार रखता हूँ। आपने एक शेर जरूर सुना होगा जो हिरोशिमा, नागासाकी से संबंधित है। इसका जिक्र खासतौर पर इसलिये कर रहा हूँ कि मुंबई पर हुये हमले ने फिर से इसकी याद ताजा कर दी-

उजाड़े हैं गुलिस्ताँ तुमने जिन हाथों से दीवानों
अगर तुम चाहते तो इनसे वीराने संवर जाते

काश! ये ऊर्जा जो गलत दिशा में लगी हुई है, सृजन में लग जाये तो धरती स्वर्ग सरीखी हो जाये! जब मैं आतंकवाद की ओर देखता हूँ तों शिक्षा एवं वैज्ञानिक चिंतन के अभाव को इसकी जड़ में पाता हूँ। और अगर जड़ न कटे तो शाखाओं के कटने का कोई मतलब नहीं है। मैं "नष्टे मूले कुतो शाखा?" में भरोसा करता हूँ। दो-चार लोगों को मारकर आतंकवाद नष्ट नहीं किया जा सकता जब तक कि उन परिस्थितियों को नष्ट न किया जाये जो इन्हे जन्म देती हैं।