Monday, May 31, 2010

सारे रंगों को समेटती "धूप से रूठी चांदनी"





पिछले दिनों शिवना प्रकाशन, सीहोर से प्रकाशित कवयित्री (डा.) सुधा ओम ढींगरा का काव्य-संग्रह "धूप से रूठी चांदनी" पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। "धूप से रूठी चांदनी" से सुधा जी के संवेदनशील व्यक्तित्व का पता चलता है जिसे एक तरफ़ अपनी जड़ों से दूर होने का एहसास है तो वहीं दूसरी ओर रिश्तों में आया खोखलापन, मानवीय मूल्यों का ह्रास और औरत होने की पीड़ा उन्हे कचोटती है। उनकी काव्य-सरिता गंगोत्री से समतल तक आने के क्रम में कई घाटों पर विश्राम करती है जिनमें परिस्थितिवश कहीं मीठा तो कहीं खारा जल विद्यमान है। इस उपवन में कभी बहार आती है जो नासापुटों को फूलों की मादक गंध का उपहार देती है तो कभी सूनेपन का एहसास लिये पतझड़ का आगमन भी होता है। इस संग्रह से गुजरना जीवन की छोटी-बड़ी कई सचाइयों से रूबरू होने जैसा है जिनके प्रति सामान्यतया हमारा ध्यान नहीं जाता या जाता भी है तो प्रतिस्पर्धा के युग में हम तेजी से आंख मूंदकर आगे बढ़ जाते हैं। यों कहें कि बचपन की खिलखिलाहट से प्रौढ़ावस्था के गंभीर चिंतन तक, यौवन के अल्हणपन से प्रेम की पाकीजगी तक और रिश्तों की शून्यता से परिपूर्णता तक जीवन के सारे रंगों को अपने में समेटे हुये है "धूप से रूठी चांदनी"। सुधा जी ने सोहणी-महिवाल, हीर-रांझा सरीखे ढाई आखर के शाश्वत प्रतिमानों से लेकर समसामयिक ईराक युद्ध में शहीद सैनिकों, मुख्तारन माई और सुनामी लहरों के उपद्रव तक हर विषय पर लेखनी चलाई है। हृदय की अतल गहराइयों में विद्यमान संवेदना की स्याही से लिखी गई इन कविताओं की कई पंक्तियां अनायास मानस-पटल पर अंकित हो जाती हैं। सामाजिक ताने-बाने में मौजूद विसंगतियों के प्रत्युत्तर में वे कहती हैं-

मैं ऐसा समाज निर्मित करूंगी,

जहां औरत सिर्फ़ मां, बेटी,

बहन, पत्नी या प्रेमिका ही नहीं,

एक इंसान,

सिर्फ़ इंसान हो...

उसे इसी तरह जाना,

पहचाना और परखा जाये।

"कविता और नारी" और "नियति" आदि कवितायें भी प्रभावशाली तरीके से नारी पीड़ा का चित्र उकेरने में सक्षम हैं। "चांदनी से नहाने लगी..." और "आवाज़ देता है कोई उस पार..." सघन प्रेम से ओत-प्रोत रचनायें हैं। यत्र-तत्र नये बिंबों का सुंदर प्रयोग पाठकों को बरबस अपने सम्मोहन में बांध लेता है। यथा-

दिन की आड़ में

किरणों का सहारा ले

सूर्य ने सारी खुदाई

झुलसा दी.

धीरे से रात ने

चांद का मरहम लगा

तारों के फहे रख

चांदनी की पट्टी कर

सुला दी

संग्रह की कविता "मैं दीप बांटती हूं..." कवयित्री के उदात्त मानवीय गुणों का द्योतक है और भारतीय संस्कृति का परिचायक भी। कुल मिलाकर "धूप से रूठी चांदनी" पठनीय एवं संग्रहणीय है।

कृति- धूप से रूठी चाँदनी (कविता संग्रह)
कवयित्री- डॉ. सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन , पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंटबस स्टैंड, सीहोर(.प्र.)
मूल्य- 300 रुपये (20$)
पृष्ठ- 112

Sunday, May 16, 2010

सीहोर का मुशायरा, हठीला जी के घर काव्य-गोष्ठी और वो टैक्सी वाला

श्री विद्या के उपासकों के बीच प्रचलित है-

यत्रास्ति भोगो तत्र मोक्षः

यत्रास्ति मोक्षो तत्र भोगः।

श्रीसुंदरी सेवनतत्पराणां

भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव॥

जहां भोग है, वहां मोक्ष नहीं और जहां मोक्ष है वहां भोग नहीं। लेकिन त्रिपुरसुंदरी के आराधक को भोग और मोक्ष दोनों हस्तगत होते हैं। जब सीहोर के बारे में सोचता हूं तो पाता हूं कि " जहां साहित्य है वहां प्रशंसक नहीं और जहां प्रशंसक हैं वहां साहित्य नहीं। लेकिन सीहोर में साहित्य और साहित्य के प्रशंसक दोनों एक ही साथ मौजूद हैं। या ऐसा कहें कि जो भोजन स्वादिष्ट होता है वो स्वास्थ्यप्रद नहीं होता और जो स्वास्थ्यप्रद होता है वो स्वादिष्ट नहीं होता। लेकिन सीहोर और उससे भी बढ़कर गुरूदेव का सान्निध्य ऐसा भोजन है जो स्वादिष्ट भी है और स्वास्थ्यप्रद भी। पिछले ८ मई, शनिवार को सुकवि मोहन राय की स्मृति में आयोजित मुशायरे में पद्मश्री और हर दिल अजीज बशीर बद्र जी, पद्मश्री बेकल उत्साही जी, राहत इंदौरी जी समेत कई दिग्गजों से रूबरू होने का मौका मिला। कार्यक्रम की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ सकते हैं, फिलहाल कुछ छायाचित्र देखें-


पुस्तक विमोचन और भव्य मुशायरा


१. पद्मश्रीबशीरबद्र जी के साथ २। पद्मश्री बेकल उत्साही जी के साथ

३.नुसरत मेंहदी साहिबा के साथ ४.डा. राहत इंदौरी जी के साथ


अगला दिन गुरूभाई अंकित सफर के नाम रहा। आदरणीय रमेंश हठीला जी ने अंकित के जन्मदिन के उपलक्ष्य में काव्य-गोष्ठी सह भोज रखा-


.काव्यगोष्ठी २. गुरूदेव के साथ चांडाल चौकड़ी(बायें से अर्श, अंकित, गुरूदेव, वीनस और मैं)

.मोनिका दीदी अंकित का तिलक करती हुई ४.गुजरात से आई गुलाबपाक मिठाई



एक बात तो बताना भूल ही गया। इन दो-तीन दिनों में जो सुस्वादु भोजन मिला वो कहीं न कहीं "रसो वै सः" की अनुभूति करा रहा था। सोच रहा हूं अगली बार सिर्फ़ खाना खाने के लिये सीहोर जाऊं।

चलते-चलते एक मजेदार घटना हुई। सीहोर से भोपाल तक वापसी के तकरीबन घंटे भर के सफर में हम चारों बातें करते हुये आ रहे थे। बातें क्या थीं, शेरों शायरी का दौर चल रहा था। मैंने भी एक मतला और एक शेर पढ़ा-

बस करो और सितम अब मेरे यारा न करो
घर की छत से यूं सरेशाम इशारा न करो

चांद इन शोख घटाओं में छिपा जाता है

चांदनी रात में जुल्फ़ों को संवारा न करो

टैक्सी चालक "रफ़ीक" ने टैक्सी की स्पीड धीमी की, डायरी और पेन निकाला और कहा- साब जी ये शेर मुझे लिखकर दे दीजिये। मुझे बहुत पसंद आया। मैं बहुत जगह टैक्सी लेकर आया गया हूं लेकिन पहली बार इतना मजा आया है। मुझे थोड़ी झिझक हो रही थी क्योंकि गज़ल अभी कच्ची है (पता नहीं "यारा" गज़ल का शब्द है भी या नहीं) फिर कुछ सोचकर मैंने लिख दिया।