Wednesday, January 27, 2010

दर्द बेचने निकले हैं श्री पंकज सुबीर, कौन है जो मोल लेगा ? और सुनिये एक गज़ल-सजायें दी है मुझे उसने मुस्कुराने पर

मित्रों, आज की महफ़िल में आपका स्वागत है। आज विशेष तौर आपके लिये गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी के स्वर में उन्ही का गीत "दर्द बेचता हूं मैं" । और साथ में सुनिये मेरी एक गज़ल जिसे उदारतापूर्वक गुरूदेव ने अपनी आवाज दी है।दर्द के इस गीत के लिये दादा गोपालदास नीरज जी की ये पंक्तियां सुनिये, माहौल बनाने के लिये-

इसीलिये तो नगर-नगर बदनाम हो गये मेरे आंसू
मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था


जिनका दुख लिखने की खातिर
मिली इतिहासों को स्याही

कानूनों को नाखुश करके

मैंने उनकी भरी गवाही

जले
उमर भर लेकिन जिनकी

अर्थी उठी अंधेरे में ही

खुशियों की नौकरी छोड़कर

मैं
उनका बन गया सिपाही


पद-लोभी आलोचक कैसे करता दर्द पुरस्कृत मेरा
मैंने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी, श्रृंगार नहीं
था
इसीलिये तो नगर-नगर.................................

तो जोरदार तालियों से स्वागत कीजिये श्री पंकज सुबीर जी का-




देखते हैं कौन है मशीन होते जा रहे इंसानों की बस्ती में जो ये दर्द मोल लेता है! फ़िलहाल तो मैं खड़े होकर तालियां बजा रहा हूं। और लीजिये अब पेश है मेरी एक गज़ल जिसे गुरूदेव ने न सिर्फ़ संवारा है बल्कि अपनी आवाज भी दी है (इंतज़ार का फल तो मीठा होता ही है ना!)।



खुशी के दीप जलाये थे जिसके आने पर
सजायें दी है मुझे उसने मुस्कुराने पर


ये कैसा शहर है, कैसे हैं कद्रदां यारों
कटे हैं हाथ यहां तो हुनर दिखाने पर


तबीयत उनकी तो सांपों से मिलती-जुलती है
हैं बैठे मार के कुंडली तभी ख़जाने पर


मिली है क़ैद अगर अम्‍न की जो की बातें
इनाम बांटे गये बस्तियां जलाने पर


हरेक बात पे सच बोलने का फ़ल है ये
है आजकल मिरा घर तीरों के निशाने पर


अदू के हाथ में खंजर भी हो ये मुमकिन है
भरम न पालिये हंसकर गले लगाने पर


बस एक खेल समझते थे वो मुहब्‍बत को
लगी वो चोट के होश आ गये ठिकाने पर


मैं चुप हूं तो न समझिये कि हाल अच्छा है
जिगर
फटेगा जो हम आ गये सुनाने पर


कोई बताये कि हम इस अदा को क्या समझें
वो और रूठते जाते "रवी" मनाने पर


अब मुझे इजाजत दें और बतायें प्रस्तुति कैसी लगी ?

Tuesday, January 26, 2010

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाओं के साथ जानिये अपने भारत को इस गीत के माध्यम से

सभी देशवासियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें। इस अवसर पर सुनिये एक पुराना गीत जिसे फ़िर से स्वर दिया है लोकगायक मनोज तिवारी ने। गीत बटोही (राहगीर) को संबोधित है और शब्द आसानी से समझ में आने योग्य हैं। अपनी राय से जरूर अवगत करायें।

Wednesday, January 20, 2010

वसंत पंचमी पर नमन मां शारदे को एक तोटक के साथ

आप सबको वसंत पंचमी की अशेष शुभकामनायें। वसंत पंचमी मेरे लिये इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मैंने विद्यारंभ इसी दिन से प्रारंभ किया था। मां के चरणों में एक तोटक रखता हूं। तोटक ठीक से पढा जाये तो अत्यंत कर्णप्रिय होता है। और आपको पता ही होगा कि तोटकाचार्य का तो नाम ही उनके प्रसिद्ध तोटक के आधार पर हुआ था, जिसने आचार्य शंकर को काफ़ी प्रभावित किया था। तोटक से परिचित होने के लिये नीचे के वीडियो में "जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे ॥" को सुनें-



या फिर लता जी के स्वर में " जय राम रमा रमनं शमनं" सुनें-

।youtube.com/v/ppi6u8VwFC0&hl=en_US&fs=1&">

तो मित्रों, ये तो रही तोटक की बात। आइये अब इस तोटक को पढ़िये और बताइये मेरी कोशिश कैसी रही-

जग का सुख-वैभव-सार नहीं
अथवा धन-राशि अपार नहीं

मत दो यश का वरदान मुझे

जननी! मत दो पद, मान मुझे


इतनी बस मातु कृपा करना
मन के सब पाप सदा हरना

मुख में शुभ-शब्द निवास करे

उर में नित ज्ञान प्रकाश करे


परकारज प्राण भले निकले
पग सत्पथ से न कभी विचले

हिय में निज भक्ति-सुधा भर दो

अयि देवि! मुझे इतना वर दो


Monday, January 18, 2010

अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे

बहुत दिनों बाद एक गज़ल आपकी नज़र कर रहा हूं। गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी ने संवारकर इसे कहने लायक बनाया है। पढ़िये और बताइये कैसी लगी ?

खून-पसीना खेतों में तो जनता रोज बहाती है
लेकिन
किसके हल के नीचे बोलो सीता आती है

षडयंत्रों का खेल रचाता घात लगाकर झूठ मगर
सच्‍चाई
फिर भी लाक्षागृह से जिंदा बच जाती है

बेशर्मी जब-जब बढ़ती है मर्यादा की सीमा से
शूर्पणखा तब- तब लक्ष्मण के हाथों नाक गंवाती है


घर से निकलो तो हिम्‍मत की छतरी भी संग ले लेना
हिंसा
की बूंदें बरसेंगीं, मौसम ये बरसाती है

अपना भारत इक झंडे के नीचे आये तो कैसे
कोई
मुंबइ वाला है तो कोई यहां गुजराती है

सदियों की सब धूल हटाकर बंद कपाटें खोलीं तो
सुब्‍ह
सवेरे अब खिड़की पर आकर धूप जगाती है

कागज़ और कलम के दम पर मुश्किल तुझको खत लिखना
पुरवाई
के हाथ पठाई खुश्‍बू की ये पाती है

सोच रहा हूं मैं अब तुझको भूलूं पर ये शोख हवा
कानों
को छूकर हौले से तेरी याद दिलाती है

Monday, January 11, 2010

मोबाइल कवि-सम्मेलन, प्रकाश अर्श की मुश्किलें और वेदांत दर्शन का अनोखा प्रयोग

मोबाइल कवि-सम्मेलन यही नाम मुझे सबसे उपयुक्त लग रहा है। इसलिये क्योंकि यह ऐसा आयोजन था जिसमें कवि और श्रोता दोनों ही गतिमान थे। सुबह-सुबह उठना और कहीं जाना तो वैसे ही कष्टकारी होता है, तिस पर जाड़े की सुबह छह बजे। स्नान करके तैयार हुआ और देखा तो बाहर अभी अंधेरा था, पर संकल्प तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिये दांत के असहनीय दर्द से पूरी रात न सो पाने के बावजूद मैंने अपने सहयात्रीद्वय को ये बात बताई नहीं और तय कार्यक्रम के अनुसार हम तीनों अपनी-अपनी द्विचक्रवाहिनी (साइकिल) से रवाना हुये। साढ़े पांच घंटे में हमने लगभग पचास किलोमीटर की दूरी तय की। ये सफ़र विक्रम-बैताल के सफ़र की तरह रोमांचक रहा, फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि विक्रम ने कहानियां सुनी थीं और मुझे कविता सुनने को मिला। मैं, मेरा एक मित्र और नागर कवि, तीन लोग इस कारवां में शामिल थे। आगे बढ़ने से पहले उचित है कि प्रकाश अर्श की मुश्किल भी आपको बताता चलूं जैसा कि ऊपर शीर्षक से आपको कुछ अनुमान हो ही गया होगा। इसे समझने के लिये गुरूभाई गौतमजी के यहां अर्श की टिप्पणी का स्नैपशाट देखें-


अर्श भाई ने ये तो मासूमियत से कह दिया कि अभी मेरी शादी भी नहीं हुई (वैसे इसमें मुश्किल क्या है? उल्टे खुश होना चाहिये!!) पर उसके पीछे की कहानी नहीं बताई। कारण है उनके द्वारा रखी गई विभिन्न शर्तें। उन शर्तों को जानने के लिये कथा के मूल में वापस लौटते हैं। अगर कहीं छठी इंद्रिय नाम की चीज होती है तो उसने मुझे सचेत किया कि कानपुर जैसे शहर में जी टी रोड पर कवि के साथ यात्रा करने का रिस्क नहीं लिया जा सकता इसलिये हमने अपेक्षाकृत शांत शिवली रोड की ओर रूख किया। पूरे रास्ते नागर कवि ने कविता सुनाई और ये बता देना अपना धर्म समझता हूं कि इनका करूण रस पर अद्भुत नियंत्रण है। आपको भरोसा न हो तो कभी रिकार्ड करके सुनवाता हूं। मुझे जो सबसे ज्यादा पसंद आई वो अनुसूया और रत्नावली पर लिखी उनकी करुण रस की कविता, वो बाद में कभी सुनवाता हूं आपको। और भी बहुत कुछ सुनाया उन्होने, कुछ अपना और कुछ दूसरों का लिखा भी। खैर इअनमें कई के मूलकवि का तो मुझे भी पता नहीं पर रचना का आनंद तो लिया ही जा सकता है तो जैसा मैने सुना और जितना ग्रहण किया उसे सामने रखता हूं। सबसे पहले ये कवित्त सुनिये, प्रकाश अर्श से पूरी सहानुभूति रखते हुये-

ब्याह करने को हम, कोटिन उपाय किये
नौ दिन उपवास किये, नव-दुर्गा कालिका
फ़िरो कोऊ आयो नाहीं, फ़ोटु है मंगायो नाहिं
उदयपुर ग्राम में है निज की अट्टालिका
हारिन दुःखारी होय, तौल में न भारी होय
सुघर सुनारी होय, जैसे शुभ्र तारिका
खांसे तो खमाज राग, हंसे तो हिंडोल लसे
रोवत में रामकली, ऐसी होय गायिका
नृत्य में नवीन होय, ताल में प्रवीन होय
रूप-रंग अंग में, सुअंग होय नायिका
नोटन की गड्डी से, खेलें हम कबड्डी नित
नागर कवि ठाठ से मनावें दीपमालिका
(एक दो पंक्तियां छूट गई हैं)

मैं तो नवरात्रि में नौ दिन का व्रत रखने वाले प्रकाश अर्श से इतना ही कहूंगा कि इतनी ज्यादा शर्तें रखोगे तब तो इस जन्म में कोई नहीं मिलने वाली। आइये इस संस्मरण का पारायण वेदांत दर्शन के इस अनोखे प्रयोग से करते हैं-

देखकर वेदांत-दर्शन आ गया है होश कुछ
कर्म कैसे भी करो, लगता न तुमको दोष कुछ

प्रेम से सत्संग,प्रवचन, कीरतन में जाइये

छांट करके खूबसूरत चप्पलें ले आइये

बात हंसने की नहीं, ये कल्पना कोरी नहीं

सब प्रभु की वस्तु जग में, इसलिये चोरी नहीं


आज इतना ही, शेष फ़िर कभी।